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________________ २.४ श्रावकार-संग्रह जन्मयौवनसंयोगसुखानि यदि देहिनाम् । निविपक्षाणि को नाम सुधीः संसारमुत्सृजेत् ।। ६३८ अनुयाचेत नायूंषि नापि मृत्युमुपाहरेत् । भृतो भृत्य इवासीत कालावधिमविस्मरन् ।। ६३९ महाभागोऽहमद्यास्मि यत्तत्त्वचितेजसा । सुविशुद्धान्तरात्मासे तम:पारे प्रतिष्ठितः ॥ ६४० तन्नास्ति यदहं लोके सुखं दुःखं च नाप्तवान् । स्वप्नेऽपि न मया प्राप्तो जैनागमसुधारसः ।।६४१ सम्यगेतत्सुधाम्भोबिन्दुमप्यालिहन्मुहुः । जन्तुर्न जातु जायेत जन्मज्वलनभाजनः ।। ६४२ देवं देवसभासीनं पञ्चकल्याणनायकम् । चतुस्त्रिशद्गुणोपेतं प्रातिहायोपशोभितम् ।। ६४३ निरञ्जनं जिनाधीशं परमं रमयाश्रितम् । अच्युतं च्युतदोषौघमभवं भवभूद्गुरुम् ।। ६४४. सर्वसंस्तुत्यमस्तुत्यं सर्वेश्वरमनीश्वरम् । साराध्यमनाराध्यं सर्वाश्रयमनाभयम्।। ६४५ प्रभवं सर्वविद्यानां सर्वलोकपितामहम् । सर्वसत्त्वहितारम्भं गतसर्वमसर्वगम् ॥ ६४६ नम्रामर किरीटांशुपरिवेषनभस्तले । भवत्पादद्वयद्योतिनख नक्षत्रमण्डलम् ।। ६४७ स्तूयमानमनूचानब्रह्मोद्यब्रह्मकामिमि । अध्यात्मागमवेधोभिर्योगिमुख्यमहद्धिभिः ।। ६४८ तैयार रहता है, स्वभावसे ही सुन्दर मनुष्य में उसकी रुचिको कौन हटा सकता है? ॥६३७।। यदि प्राणियोंके जन्म,यौवन,संयोग और सुखके विपक्षी भृत्यु,बुढापा, वियोग और दुःख न होते तो कौन बुद्धिमान् संसारको छोडता? ॥६३८।। अतः न तो आयुकी याचना करना चाहिए कि मैं और अधिक दिनों तक जीता रहूँ, और न मृत्युको बुलाना चाहिए कि मै जल्दी मर जाऊँ किन्तु अपने जीवनकी अवधिको न भूलकर वेतन पानेवाले नौकरकी तरह रहना चाहिए।। ६३९।। आज मै बडा भाग्यशाली हूँ, क्योंकि तत्त्वरुचिरूपी तेजसे मेरा अन्तरामा सुविशुद्ध हो गया है और मै मिथ्यात्वरूपी अन्धकारको पार कर चुका हूँ॥६४०॥ ससारमें ऐसा कोई सुख और दुःख नहीं हैं जो मैने नहीं भोगा। किन्तु जैनागमरूपी अमृतका पान मैने स्वप्न में भी नहीं किया ।। ६४१।। इस अमृतके सागरकी एक बूंदको भी बार-बार आस्वादन करनेवाला प्राणी फिर कभी भी जन्मरूपी अग्निका पात्र नहीं बनता ॥६४२।। (अब अर्हन्तदेवका ध्यान करनेकी प्रेरणा करते हैं-) समवसरणमें विराजमान.पाँच कल्याणकोंके नायकचौंतीस अतिशयोंसे यक्त. आठ प्रातिहायौंसे सशोभित, घातियाकर्मरूपी मलसे रहित,उत्कृष्ट अन्तरंग और बहिरंग लक्ष्मीसे वेष्टित,जिनश्रेष्ठ, आत्म स्वरूपसे कभी च्युत न होनेवाले, दोषसमूहसे रहित, संसारातीत किन्तु संसारी प्राणियोंके गुरु, स्वयं सबके द्वारा स्तुति करनेके योग्य, किन्तु जिनके लिए कोई भी स्तुति-योग्य नहीं, स्वयं सबके स्वामी किन्तु जिनका स्वामी कोई नहीं, सबके आराध्य किन्तु जिनका कोई आराध्य नहीं,सबके आश्रय किन्तु जिनका कोई आश्रय नहीं,समस्त विद्याओंके उत्पत्तिस्थान, सब लोकोंके पितामह, सब प्राणियोंके हितू, सबके ज्ञाता, स्वशरीर प्रमाण, नमस्कार करते हुए देवोंके मुकुटोंके किरणजालरूपी आकाशमें जिनके दोनों चरणोंके प्रकाशमान नख नक्षत्रमण्डलके समान प्रतीत होते है, ब्रह्मवेत्ता ब्रह्मको पानेके इच्छुक अध्यात्म शास्त्रके रचयिता ऋद्धिधारी ऋषिगण जिनकी स्तुति करते है, उन रूपरहित किन्तु सबका निरूपण करनेवाले,स्वयं शब्दरूप न होते हुए भी शब्द यानी आगमके द्वारा कहे जानेवाले,स्पर्शगुणसे रहित किन्तु ध्यानके द्वारा स्पृष्ट,रस गुणसे रहित किन्तु सरस उपदेशके दाता, गन्ध गुणसे रहित किन्तु गुणोंकी सुगन्धसे विशिष्ट, इन्द्रियोंके सम्बन्धसे रहित किन्तु इन्द्रियोंके विषयोंके प्रकाशक, आनन्दरूपी धान्यकी उत्पत्तिके लिए पृथ्वीकी तृष्णा रूपी अग्निको लपटोंको शान्त करनेके लिए पानी,दोषरूपी धूलिको हटाने के लिए वायु,पापरूपी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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