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यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन
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निर्मनस्के मनोहंसे हंसे सर्वतः स्थिरे । बोधहंसोऽखिलालोक्यसरोहंसः प्रजायते ॥ ५९३ यद्यप्यस्मिन्मन:क्षेत्रे क्रियां तां तां समादधत् । कंचिद्वेदयते भावं तथाप्यत्र न विभ्रमेत् ॥ ५९४ विपक्षे क्लेशराशीनां यस्मान्नैष विधिर्मतः । तस्मान्न विस्मयेतास्मिन् परब्रह्म समाश्रितः ।। ५९५ प्रभावैश्वर्य विज्ञानदेवतासंगमादयः। योगोन्मेषाद्धवन्तोऽपि नामी तत्त्वविदा मुदे ।। ५९६ भूमौ जन्मेति रत्नाना यथा सर्वत्र नोद्भवः । तथात्मजमिति ध्यानं सर्बत्राङिगनि नोद्भवेत् ॥५९७ तस्य कालं वदन्त्यन्तर्मुहूर्त मुनयः परम् । अपरस्पन्दमानं हि तत्परं दुर्धरं मनः ॥ ५९८ तत्कालमपि तद्धयानं स्फुरदेकारमात्मनि । उच्चैः कर्मोच्चयं भिन्द्यावलं शैलमिव क्षणात् ।। ५९९ कल्पैरप्यम्बुधिः शक्यश्चुलुक!च्चुलुम्पितुम् । कल्पान्तभूः पुनर्वातस्तं महुः शोषमानयेत् ॥ ६०० रूपे मरुति चित्ते च तथान्यत्र यथा विशन् । लभेत कामितं तद्वदात्मना परमात्मनि ॥ ६०१ स्वभावसे ही चचल होता है, किन्तु यदि आगमें आंत्र देकर विधिपूर्वक उसे सिद्ध कर लिया जाये तो उसके सिद्ध होनेसे अनेक रससिद्धियाँ प्राप्त हो जाती है। वैसे ही चञ्चल मन यदि आत्मरबरूपमें स्थिर हो जाये तो फिर ऐसी कौन-सी सिद्धि हैं जो प्राप्त नहीं हो सकती। अतः मनको स्थिर करना आवश्यक है। यदि यह मनरूपी इंस अपना व्यापार छोडे दे और आत्मरूपी हंस सर्वथा स्थिर हो जाये तो ज्ञानरूपी हंस समस्त ज्ञेयरूपी सरोवरका हंस बन जाये अर्थात मन निश्चल होनेके साथ यदि आत्मा,आत्मामें सर्वथा स्थिर हो जाये तो विश्वको जाननेवाला केवलज्ञान प्रकट होता है ।।५९३।। यद्यपि इस मनरूपी क्षेत्र में अनेक क्रियाओंको करता हुआ मुनि किसी पदार्थको जान लेता है, फिर भी उसमें धोखा नहीं खाना चाहिए। क्योंकि विपक्षमें नाना क्लेशोंके रहते हुए ऐसा करना उचित नहीं है । अतः परब्रह्म परमात्मस्वरूपका आश्रय लेनेवालेको इस विपयमें आश्चर्य नहीं करना चाहिए ।।५९४-५९५ । भावार्य-आशय यह हैं कि मनोनिग्रह करनेसे यदि कोई छोटी-मोटो ऋद्धि या ज्ञान प्राप्त हो जाये तो मोक्षार्थी ध्यानीको उसी में नहीं रम जाना चाहिए, क्योंकि उसका उद्देश्य इससे बहुत ऊँचा हैं । वह तो संसारके दुःखोंका समूल नाश करके परमात्मपदकी प्राप्तिके लिए योगी बना हैं, अतः उसे प्राप्त किये बिना उसे विश्राम नहीं लेना चाहिए और मामूली लौकिक ऋद्धिसिद्धिके चक्कर में नहीं पड जाना चाहिए। क्योंकि उसके प्राप्त हो जानेपर भी अनन्त क्लेश राशिसे छुटकारा नहीं हो सकता । यही आगे स्पष्ट करते हैं-ध्यानका प्रादुर्भाव होनेसे प्रभाव, ऐश्वर्य, विशिष्ट ज्ञान और देवताका दर्शन आदिकी प्राप्ति होनेपर भी तत्त्वज्ञानी इनसे प्रसन्न नहीं होते ।।५९६।। जैसे भूमिसे रत्नोंकी उत्पत्ति होनेपर भी सब जगह रत्न पैदा नहीं होता, वैसे ही ध्यानके आत्मासे जन्य होनेपर भी सभी प्राणियोंकी आत्माओंमें ध्यान उत्पन्न नहीं होता ॥५९७॥ मुनिजन उस ध्यानका काल अन्तुर्मुहर्त बतलाते है उतने काल तक मन निश्चिल रहता हैं इससे अधिक समय तक मनको स्थिर रखना अत्यन्त कठिन हैं ।।५९८।। किन्तु आत्मामें इतने समयके लिए भी होनेवाला निश्चल ध्यान महान् कर्मसमूहका उसी प्रकार भेदन करता है जैसे वज्र क्षण भरमें पहाडको चूर्ण कर डालता है ।।५९९।। ठीक ही है सैकडो कल्पकालो तक चुल्लुओंके द्वारा समुद्रके जलको उछालने पर भी किसी मूर्ति में या चित्तमें या अन्य किसी बाह्य वस्तुमें मनको लगानेसे इष्ट वस्तुकी प्राप्ति होती है वैसे ही आत्माके द्वारा परमात्मामें मनको लगानेसे परमात्मपदकी प्राप्ति होती है।.६०१॥ वैराग्य,
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