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________________ श्रावकार-संग्रह चित्तेऽनन्तप्रभावेऽस्मिन्प्रकृत्या रसवच्चले । तत्तेजसि स्थिरे सिद्ध न किसिद्ध जगत्त्रये ॥ ५९२ पड सके । अतः ध्यान करने के लिए इन्द्रियोंको वशमें करके और राग-द्वेषको दूर करके अपने मनको ध्यानके दस स्थानोंमेसे किसी एक स्थान पर लगाना चाहिए। नेत्र, कान, नाकका अग्र भाग, सिर, मुख, नाभि, मस्तक, हृदय,तालु और दोनों भौंहोंका बीच-ये दस स्थान मनको स्थिर करनेके योग्य हैं। इनमें से किसी एक स्थान पर मनको स्थिर करके ध्येयका चिन्तन करनेसे ध्यान स्थिर होता है । ध्यान करनेसे पहले ध्यानी को यह विचारना चाहिए कि देखो, कितने खेदकी बात है कि मै अनन्त गुणोंका भण्डार होते हुए भी संसाररूपी वनमें कर्मरूपी शत्रुओंसे ठगाया गया। यह सब मेरा ही दोष है। मैने ही तो इन शत्रुओंका पाल रखा है। यदि मै रागा. दिक बन्धनोंमें बँधकर विपरीत आचरण न करता तो कर्मरूपी शत्रु प्रबल ही क्यों होते? अस्तु, अब मेरा रासरूपी ज्वर उतर चला है और मै मोह नींदसे जाग गया हूं, अतः अब ध्यानरूपी तलवारकी धारसे कर्म-शत्रुओंको मारे डालता हूँ। यदि मै अज्ञानको दूर करके अपनी आत्माका दर्शन करूँ तो कर्मशत्रुओंको क्षणभरमें जलाकर राख कर दूं तथा प्रबल ध्यानरूपी कुठारसे पापरूपी वृक्षोंको जडमूलसे ऐसा काटूं कि फिर इनमें फल ही न आ सके । किन्तु मै मोहसे ऐसा अन्धा बना रहा कि मैने अपनेको नहीं पहचाना । मेरा आत्मा परमात्मा हैं परंज्योतिरूप है, जगत में सबसे महान् हैं। मुझमें और परमात्मामें केवल इतना ही अन्तर हैं कि परमात्मामें अनन्तचतुष्टयरूप गुण व्यक्त हो चुके है और मेरेमें वे गुण शक्तिरूपसे विद्यमान है। अतः मै उस परमात्मस्वरूपकी प्राप्तिके लिए अपनी आत्माको जानना चाहता हूँ। न मै नारकी हूँ, न तिर्यञ्च हूँ, न मनुष्य हूँ, और न देव हूँ, 1 ये सब कर्मजन्य अवस्थाएँ है । मै तो सिद्धस्वरूप हूँ। अतः अनन्त ज्ञान,अनन्त' दर्शन,अनन्त सुख और अनन्तवीर्यका स्वामी होनेपर भी क्या मै कर्मरूपी विषवृक्षोंको उखाड कर नहीं फेक सकता? आज मै अपनी शक्तिको पहचान गया हूँ और अब बाह्य पदार्थोकी चाहको दूर करके आनन्दमन्दिरमें प्रवेश करता हूँ। फिर मै कभी भी अपने स्वरूपसे नहीं डिगूंगा । ऐसा विचारकर दृढ निश्चयपूर्वक ध्यान करना चाहिए। जिसका ध्यान किया जाता हैं उसे ध्येय कहते हैं ध्येय दो प्रकारके होते हैं-चेतन और अचेतन। चेतन तो जीव हैं और अचेतन शेष पाँच द्रव्य है । चेतन ध्येय भी दो हैं-एक तो देहसहित अरिहन्त भगवान् हैं और दूसरे देहरहित सिद्ध भगवान् है। धर्मध्यानमें इन्हीं जीवाजीवादिक द्रव्योंका ध्यान किया जाता हैं । जो मोक्षार्थी है वे तो और सब कुछ छोडकर परमात्माका ही ध्यान करते हैं। वे उसमें अपना मन लगाकर उसके गुणोंको चिन्तन करते-करते अपनेको उसमें एक रूप करके तल्लीन हो जाते है । 'यह परमात्माका स्वरूप ग्रहण करने के योग्य है और मै इनका ग्रहण करनेवाला हूँ,ऐसा द्वैत भाव तब नहीं रहत । उस समय ध्यानी मुनि अन्य सब विकल्पोंको छोडकर उस परमात्मस्वरूपमें ऐसा लीन हो जाता हैं कि ध्याता और ध्यानका विकल्प भी न रहकर ध्येय रूपसे एकता हो जाती है। इस प्रकारके निश्चल ध्यानको सबीज ध्यान कहते है। इससे ही आत्मा परमात्मा बनता हैं और जब शुद्धोपयोगी होकर मुनि अपनी शुद्ध आत्माका ध्यान करता हैं तो उस ध्यानको निर्बीज ध्यान कहते हैं। यह चित्त अनन्त प्रभावशाली हैं किन्तु स्वभावसे ही पारेकी तरह चचल है । जैसे आग के द्वारा पारा सिद्ध हो जाता है उसी तरह यदि यह आत्मज्ञानमें स्थिर होकर सिद्ध हो जाये तो इसके सिद्ध होनेसे तीनों लोकोंमें ऐसी कौन-सी वस्तु है जो सिद्ध यानी प्राप्त न हो ॥५९२॥ भावार्थ-पारा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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