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________________ यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन १९५ है वह आत्माका ध्यान कैसे कर सकता है। इसलिए जो कामभोगसे विरक्त होकर और शरीरसे भी ममता छोडकर निर्ममत्ववाला हो जाता है वही पुरुष ध्याता हो सकता है। ध्यान शुभ भी होता है और अशुभ भी होता है । वस्तुके यथार्थ स्वरूपका चिन्तन करना शुभ ध्यान है और मोहके वशीभूत होकर वस्तुके अयथार्थ स्वरूपका चिन्तन करना अशुभ ध्यान है। शुभ ध्यानसे स्वर्गादिनी प्राप्ति होती हैं और अशुभ ध्यानसे नरकादिकमें जन्म लेना पडता हैं। एक तीसरा ध्यान भी हैं जिसे शुद्ध ध्यान कहते है। रागादिके क्षीण हो जानेसे जब अन्तरात्मा निर्मल हो जातो हैं तब जो अपने स्वरूपको उपलब्धि होती हैं वह शुद्ध ध्यान है । इस शुद्ध ध्यानसे ही स्वाभाविक केवल ज्ञानलक्ष्मीकी प्राप्ति होती है। सारांश यह कि जीवके परिणाम तीन प्रकारके होते है-अशुभ,शुभ और शुद्ध । अतः अशुभसे अशुभ, शुभसे शुभ और शुद्धसे शुद्ध ध्यान होता हैं। आर्त और रौद्र ध्यान अशुभ होते है,अतः उन्हें नहीं करना चाहिए । धर्मध्यान शुभ है और शुक्ल ध्यान शद्ध हैं ये दो ही ध्यान करने के योग्य है। इनमें पहले धर्म ध्यान ही किया जाता हैं। उसके लिए ध्यान करनेवालेको उत्तम स्थान चुनना चाहिए; क्योंकि अच्छे और बुरे स्थानका भी मनपर बडा प्रभाव पडता है । जहाँ दुष्ट लोग उपद्रव कर सकते हों,स्त्रियां विचरण करती हों वहाँ ध्यान नहीं करना चाहिए । तथा जहाँ तृण, काँटे, बाँबी, कंकड, खुरदरे पत्थर, कीचड, हाड, रुधिर आदि हो वहाँ भी ध्यान नहीं करना चाहिए । सारांश यह हैं कि जहाँ किसी वाह्य निमित्तसे मनमें क्षोभ उत्पन्न हो सकता हैं वहाँ ध्यान नहीं हो सकता। इसलिए ध्यान करनेवालेको ऐसे स्थान त्याग देने चाहिए । सिद्धिक्षेत्र, तीर्थङ्करोंके कल्याणकोंसे पवित्र तीर्थस्थान, मन्दिर, वन, पर्वत, नदीका किनारा, गुफा आदि स्थान जहाँ किसी तरहका कोलाहल न हो, समस्त ऋतुओंमें सुखदायक हों,रमणीक हों, उपद्रवरहित हों, वर्षा, धाम, शीत और वायुके प्रबल झकोरोंसे रहित हों, ध्यान करने के योग्य होते है। ऐसे शान्त स्थानों में काष्ठके तख्तेपर, शिलापर या भूमिपर अथवा बालूमें आसन लगाना चाहिए पर्यक आसन,अर्द्धपर्यङ्कासन,वज्रासन, वीरासन, सुखासन, कमलासन,और कायोत्सर्ग ये ध्यानके योग्य आसन माने गये हैं । इस समय चूंकी जीवोंके शरीर उतने दृढ और शक्तिशाली नहीं होते,इसलिए पर्यकासन ओर कायोत्सर्ग ये दो आसन ही उत्तम माने जाते हैं। स्थान और आसन ध्यानकी सिद्धि में कारण है। इनमें से यदि एक भी ठीक न हो तो मन स्थिर नहीं हो पाता । ध्यानीको चाहिए कि वह चितको प्रसन्न करनेवाले किसी रमणीक स्थानमें जाकर पर्यंकासनसे ध्यान लगाके पालथी लगाकर दोनों हाथोंको खिले हए कमलके समान करके अपनी गोदमें रखें । दोनों नेत्रोंको निश्चल, सौम्य और प्रसन्न बनाकर नाकके अग्र भागमें ठहरावे । भौंहें विकाररहित हों और दोनों होठ न तो बहुत खुले हों और न बहुत मिले हों। शरीर सीधा और लम्बा हो मानो दीवारपर कोई चित्राम बना है। ध्यानकी सिद्धि और मनकी एकाग्रताके लिए प्राणायाम भी आवश्यक माना जाता हैं । प्राणायाम वायुकी साधनाको कहते हैं । शरीरमें जो वायु होती हैं वह मुख नाक आदि के द्वारा आती जाती हैं। इसके कारण भी मन चंचल रहता हैं । जब वह वशमें हो जाती है तब मन भी वश में हो जाता है। किन्तु जैनशास्त्रोंमें प्राणायामको चित्तशुद्धिका प्रबल साधन नहीं माना गया है ; क्योंकि उसको हठपूर्वक करनेसे मन स्थिर होने के बदले व्याकुल हो उठता है । अतः मोक्षार्थीके लिए प्राणायाम उपयुक्त नहीं हैं। किन्तु ध्यानके लमय श्वासोच्छ्वासका मन्द होना आवश्यक है, जिससे उसके कारण ध्यानमें विघ्न न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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