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________________ १९४ श्रावकाचार-संग्रह नाक्षमित्वमविघ्नाय न क्लीबत्वसमृत्यवें । तस्मादविलश्यमानात्मा परं ब्रह्मैव चिन्तयेत् ।। ५८६ यत्रायमिन्द्रियग्रामो व्यासङ्गस्तेनविप्लवंम् । नारनवीत तमुद्देशं भजेताध्यात्मसिद्धये ॥ ५८७ फल्गजन्माप्ययं देहो यदलाबुफलायते । संसारसागरोत्तारे रक्ष्यस्तस्मात् प्रयत्नतः ॥ ५८८ नरेऽधीरें वृथा वर्म क्षेत्रेऽसस्ये वृतिर्वृथा । यथा सर्वो ध्यानशून्यस्य तद्विधिः ।। ५८९ बहिरन्तस्तमोवातरस्पन्दं बीपवन्मनः । यत्तत्त्वालोकनोल्लासि तत्स्यायानं सबीजकम् ।। ५९० निविचारावतारासु चेतःस्रोतःप्रवृत्तिषु। आत्मन्येव स्फुरन्नात्मा भवेदध्यानमबीजकम। ५९१ यदि कोई पशुकृत उपसर्ग उपस्थित हो जैसे सुकुमाल मुनिपर श्रृगालौने किया था, या देवकृत उपसर्ग उपस्थित हो,जैसे भगवान् पार्श्वनाथके ऊपर कमठके जीव व्यन्तरने किया था,या मनुष्यकृत उपसर्ग उपस्थित हो जैसे पाण्डवोंपर उनके शत्रुओंने किया था, या आकाशसे अचानक बिजली,पानी और ओला बरसने लगे,या जमीन चुभने लगे अथवा शरीर में ही कोई पीडा उत्पन्न हो जाये तो ध्यानी पुरुषको राग-द्वेष न करके सब प्रकारकी बाधाओंको शान्तिपूर्वक सहना चाहिए ॥५८५।। ऐसे समय असहनशीलता दिखानेसे विघ्न दूर नहीं हो सकता और न कायरता दिखलानेसे जीवन ही बच सकता हैं । अतः किसी प्रकारका दुःख न मानकर परमात्माका ही ध्यान करना चाहिए ।।५८६।। जहाँपर इन्द्रियोंको अन्य पदार्थमें आसक्तिरूपी चोरके द्वारा कोई बाधा प्राप्त न हो अर्थात् इन्द्रियाँ इधर-उधर न भटक कर अपनेमें ही आसक्त रहें,आत्माकी सिद्धिके लिए ऐसे ही स्थानपर ध्यान करना चाहिए ।।५८७॥ (यदि कोई यह सोचे कि यह शरीर तो अपना नहीं हैं और नष्ट होने वाला है। इसलिए इसे जल्दी नष्ट कर डालना चाहिए,तो उसके लिए कहते हैं-) यद्यपि इस शरीरका जन्म निरर्थक हैं फिर भी संसाररूपी समुद्र से पार उतरनेके लिए यह तुम्बी के समान सहायक हैं । इसलिए प्रयत्नपूर्वक इसकी रक्षा करनी चाहिए ॥५८८।। भावार्थयद्यपि तुम्बीका जन्म निरर्थक होता है,वह खाने आदिके योग नहीं होती फिर भी नदी आदि को पार करने में वह सहायक होती हैं, इस लिए लोग उसे नष्ट न करके पास रखते है । वैसे ही शरीर भी व्यर्थ हैं वह न होता तो आत्माको वारम्बार जन्म-मरणका दुःख क्यों उठाना पडता। फिर भी शरीरके बिना धर्म साधन नहीं हो सकता। ध्यानके लिए तो सुदृढ संहननवाले शरीरकी आवश्यकता होती है । अतः उसे यों ही नष्ट नहीं कर डालना चाहिए,किन्तु उसकी रक्षा करनी चाहिए, परन्तु यदि वह रक्षा करनेपर भी न बच सकता हो तो उसकी चिन्ता नहीं करनी चाहिए। सारांश यह है कि धर्म सेवनके लिए शरीरको स्वस्थ बनाये रखना जरूरी हैं किन्तु धर्म खोकर शरीरको बनाये रखना मूर्खता है, जैसे कायर मनुष्यको कवच पहनाना व्यर्थ है और बिना घान्यके खेत में बाड लगाना व्यर्थ है,वैसे ही जो मनुष्य ध्यान नहीं करता उसके लिए ध्यानकी सब विधि व्यर्थ हैं ॥५८९॥ (ध्यान दो प्रकारका होता है-एक संबीज ध्यान और दूसरा अबीज ध्यान । दोनोंका स्वरूप बतलाते है-) जैसे वायुरहित स्थानमें दीपकको लौ निश्चल रहती हैं वैसे ही जिस ध्यानमें मन अन्तरंग और सहिरंग चंचलतासे रहित होकर तत्त्वोंके चिन्तनमें लीन रहता है उसे सबीज ध्यान कहते हैं और मनमें किसी विचारके न होते हुए जब आत्मा-आत्मामें ही लीन होता है उसे निर्बीज ध्यान कहते हैं ॥५९०-५९१।। भावार्थ-कर्मोके क्षय होनेसे ही मोक्ष होता हैं । और कर्मोका क्षय ध्यानसे होता है अतः जो सुमुक्षु है उन्हें ध्यानका अभ्यास अवश्य करना चाहिए। ध्यान करनेके लिए मोहका त्याग आवश्यक हैं ; क्योंकि जिसका मन स्त्री पुत्र और धनादिमें आसक्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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