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यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन
मन्त्रोऽयमेव सेव्यः परत्र मन्त्रे फलोपलम्भेऽपिायद्यप्यग्रेविटपीफलति तथाप्यस्य सिच्यते मूलम् ॥५७६ अत्रामुत्र च नियतकामितफलसिद्धयेपरोमन्त्रःानाभूदस्तिभविष्यतिगुरुपञ्चकवाचकान्मन्त्रात्।।५७७ अभिलषितकामधेनौ दुरितद्रमपावके हि मन्त्रेऽस्मिन् । दृष्टादृष्टफले सति परत्रमन्त्रेकथं सजतु॥५७८
इन्थं मनो मनसि बाह्यमबाह्यवृत्ति कृत्वा हृषीकनगरं मरतो नियम्य।
सम्यग्जपं विदधत सुधियः प्रयत्नाल्लोकत्रयेऽस्य कृतिनः किमसाध्यमस्ति ।।५७९।। आदिध्यासुः परंज्योतिरीप्सुस्तद्धाम शाश्वतम् । इमं ध्यानविधि यत्नादभ्यस्यतु समाहितः।। ५८० तत्त्वचिन्तामताम्भोधो दृढमग्नतया मनः । बहियाप्तो जडं कृत्वा द्वयमासनमाचरेत् ।। ५८१ सूजमप्राणयमायामः सन्नसर्वाङ्गसंचरः । ग्रावोत्कीर्ण इवासीत ध्यानानन्दसुधां लिहन् । ५८२ यदेन्द्रियाणि पञ्चापि स्वात्मस्थानि समासते। तदा ज्योतिः स्फुरत्यन्तश्चित्ते चित्तं निमज्जति।।५८३ चित्तस्यैकाग्रता ध्यानं ध्यातात्मा तत्फलप्रभुः । ध्येयमागमज्योतिस्तद्विदेहयातना ॥ ५८४ तैरश्चमामरं मार्त्य नामसं भौममङ्गजम् । सहतु समधीः सर्वमन्तरायं द्वयातिगः ।। ५८५ हः मम पादौ रक्ष रक्ष स्वाहा' इस मंत्रको पढकर पैरोंपर पुष्प डाले। इस प्रकार यह सकलीकरण क्रिया मन्त्र जपनेसे पूर्व करना चाहिए। (नमस्कार मन्त्रके जपका फल तथा माहात्म्य-) जो आनन्दपूर्वक प्राणवायके साथ सम्पूर्ण मन्त्रका अत्यन्त स्पष्ट जप करता है उसके सब मनोरथ पूर्ण होते हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं है ।।५७५।। अन्य मन्त्रोंसे फल प्राप्ति होनेपर भी इसी नमस्कारमन्त्रकी आराधना करनी चाहिए। क्योंकि यद्यपि वृक्षके ऊपरके भागमें फल लगते है फिर भी उसकी जड ही सींची जाती है । अर्थात् यह मन्त्र सब मन्त्रोंका मूल है इस सिए इसीकी आराधना करनी चाहिए ।।५७६।। पंच परमेष्ठीके वाचक इस णमोकार मन्त्रके सिवाय इस लोक और परलोकमें इच्छित फलको नियमसे देनेवाला दूसरा मन्त्र न था, न है और न होगा ॥५७७।। जब यह मन्त्र इच्छित वस्तुके लिए कामधेनु और पापरूपी वृक्षके लिए आगके समान हैं तथा दृष्ट और अदृष्ट फलको देता है तो अन्योंम क्यों लगा जाये । अर्थात् इसी एक मन्त्रका जप करना उचित हैं ॥५७८।। इस प्रकार मनको मनमें और इन्द्रियोंके समूहको आभ्यन्तरकी ओर करके तथा श्वासोच्छ्वासका नियमन करके जो बुद्धिमान् प्रयत्नपूर्वक सम्यग् जप करता है उस कर्मठ व्यक्तिके लिए तीनों लोकोंमें कुछ भी असाध्य नहीं है ॥५७९।। (अब ध्यानको विधि बतलाते हैं-) जो अर्हन्त भगवान्का ध्यान करनेका इच्छुक है और उस स्थायी मोक्ष स्थानको प्राप्त करता चाहता है,उसे सावधान होकर प्रयत्नपूर्वक आगे बतलायी गयी ध्यानकी विधिका अभ्यास करना चाहिए ॥५८०॥ तत्त्वचिन्तारूपी अमृतके समुद्रम मनको ऐसा डुबा दो कि वह बाह्य बातोंमें एकदम जड हो और फिर पद्मासन या खड्गासन लगाओ।।५८१।। ध्यानरूपी आनन्दामृतका पान करते समय श्वासवायुको बहुत धीमेसे अन्दरकी ओर ले जाना चाहिए और बहुत धीमेसे बाहर निकालना चाहिए । तथा समस्त अंगोंका हलन-चलन एकदम बन्द होना चाहिए उस समय ध्यानी पुरुष ऐसा मालूम हो मानो पत्थरकी मूर्ति है ।।५८२।। जब पाँचो इन्द्रियाँ बाह्य व्यापारको छोडकर आत्मस्थ हो जाती है और चित्त अन्तरात्मामें लीन हो जाता हैं तब अन्तरात्मामें ज्योतिका उदय होता हैं ।।५८३॥ चित्त की एकाग्रताको ध्यान कहते हैं। आत्मा ध्याता यानी ध्यान करनेवाला हैं। वही ध्यानके फलका स्वामी है । आत्मा और श्रुतज्ञान ध्येय है,ध्यानमें उन्हींका चिन्तन किया जाता है और शरीर तथा इन्द्रियोंपर काबू रखना ध्यानका उपाय हैं ।।५८४।। ध्यान करते समय
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