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________________ १९२ श्रावकाचार-संग्रह नियमितकरणग्रामः स्थानासनमानसप्रचारज्ञः । पवनप्रयोगनिपुणः सम्यसिद्धो भवेदशेषज्ञः।।५७१ इममेव मन्त्रमन्ते पञ्चत्रिशत्प्रकारवर्णस्थम् । मुनयो जपन्ति विधिवत्परमपदावाप्तये नित्यम्।।५७२ मन्त्राणामखिलानामयमेकः कार्यकृद्भवेत्सिद्धः । अस्यैकदेशकार्य परे तु कुर्युनं ते सर्वे ।। ५७३ कुर्यात्करयोन्यासं कनिष्ठिकान्त प्रकारयुगलेना तदनुहदाननमस्तककवचास्त्रविधिविधातव्यः।।५७४ संपूर्णमतिस्पष्टं सनादमानन्दसुन्दरं जपतः । सर्वसमोहितसिद्धिनि:संशयमस्य जायेत ।। ५७५ होता है ॥५७०।। जो अपनी इन्द्रियोंको वश में कर लेता हैं और स्थान,आसन व मनके संचारको जानता हैं तथा श्वासोज्छवासके प्रयोगमें सिद्धहस्त होता है,वह सर्वज्ञ होकर सिद्ध पद प्राप्त करता हैं ।।५७१।। भावार्थ-आशय यह हैं कि जपके लिए इन्द्रियोंको वशमं करना आवश्यक है, उसके बिना जपमें मन नहीं लग सकता और बिना मन लगाये जप हो भी नहीं सकता। क्योंकि यदि मुंहसे मन्त्र बोलते रहने और हाथों से गुरिया सरकाते रहने पर भी मन कहीं और भटकता है तो वह जाप बेकार हैं। ऊपर जो मनसे और वचनसे जाप करना बतलाया हैं उसका यह मतलब नहीं हैं कि वचनसे किये जानेवाले जापमें मनको छुट्टी रहती हैं। मन तो हर हालतमें उसीमेलगा रहना चाहिए। किन्तु मनसे किये जानेवाले जापमें वचनका उच्चारण नहीं किया जाता और मन-हीमनमें जप किया जाता है । अतः प्रत्येक प्रकारके जपके लिए इन्द्रियोंपर काबू होना आवश्यक है। दूसरे, स्थान कैसा होना चाहिए,आसन किस प्रकार लगाना चाहिए, मन्त्रों में मनका संचार किस प्रकार करना चाहिए-ये सब बातें भी जप करनवालेको ज्ञात होनी चाहिए। तथा जप करते समय श्वासकी गति कैसी होनी चाहिए, कितने समयमें श्वास लेना चाहिए और कब छोडना चाहिए, इस क्रियाका अच्छा अभ्यास होना चाहिए। जो इन सब बातोंका अभ्यासी होकर जप करता हैं वह सच्चा ध्यानी बनकर मोक्ष प्राप्त कर लेता हैं । मुनि भी मोक्षको प्राप्तिके लिए इसी पैंतीस अक्षरोंके नमस्कारमन्त्रीको सदा विधिपूर्वक जपते हैं ॥५७२।। यह अकेला ही सब मन्त्रोंका काम करता है किन्तु अन्य सब मन्त्र मिलकर भी इसका एक भाग भी काम नहीं करते । ५७३।। (जप प्रारम्भ करनेसे पूर्व सकलीकरण विधान) दोनो हाथोंकी अंगुलियोंपर अँगूठेसे लेकर कनिष्ठिका अगुलीतक दो प्रकारसे मन्त्रका न्यास करना चाहिए। उसके पश्चात् हृदय मुख और मस्तकका सकलीकरण विधि करना चाहिए ।।५४७।। भावार्थ-'ॐ हां णमो अरहंताणं न्हां अंगुष्ठाभ्यां नमः, यह मन्त्र पढकर दोनों अंगूठोंको पानीमें डुबोकर शुद्ध करे । 'ॐ न्हीं णमो सिद्धाणं ही तर्जनीभ्यां नमः इस मन्त्रको पढकर दोनों तर्जनी अंगुलियोंको शुद्ध करे 'ॐ हूं णमो पायरियाणं हूं मध्यमाभ्यां नमः'इस मन्त्रको पढकर दोनों बीचकी अंगुलियोंको शुद्ध करे। 'ॐ हौ णमों उवज्झायाणं ण्हौं जनामिकाभ्यां नमः' इस मन्त्रको पढकर दोनों अनामिका अँगुलियोंको कनिष्ठिका अँगुलियोंको शुद्ध करे । फिर 'ॐ हीं हूँ -हौं न्हः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः' इस मन्त्रको पढ दोनों हथेलियोंको दोदों तरफसे शुद्ध करे। 'ॐ न्हां णम। अरहताणं हां मम शीर्ष रक्ष रक्ष स्वाहा'इस मन्त्रको पढकर मस्तकपर पुष्प डाले । 'ॐ ही णमो सिद्धाणां हीमम वदनं रक्ष रक्ष स्वाहा' इस मन्त्रको पढकर अपने मुखपर पुष्प डाले। 'ॐ है। णमो उवज्झायाणं न्हौं मम नाभिं रक्ष रक्ष स्वाहा' इस मंत्रको पढकर नाभिक स्पर्श करे। 'ॐ हः णमो लोए सव्वसाहूणं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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