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________________ यशस्तिलक चम्पूगत - उपासकाध्ययन 1 तदलमतुल त्वादृग्वाणीपथस्तवनोचिते त्वयि गुणगणापात्रैः स्तोत्रैर्जडस्य हि मादृशः । प्रणतिविषये व्यापारेऽस्मिन्पुनः सुलभे जनः कथमयमवागास्तां स्वामिन्नतोsस्तु नमोऽस्तु ते ॥ ५६३ जन्नेत्रं पात्रं निखिलविषयज्ञानमहसां महान्तं त्वां सन्तं सकलनयनी तिस्मृतगुणम् । महोदारं सारं विततहृदयानन्दविषये ततो याचे नो चेद्भवसि भगवन्नायविमुखः ॥ ५६४ मनुजदिविजलक्ष्मीलोचनालोकलीला श्चिरमिह चरितार्थास्त्वत्प्रसादात्प्रजाताः । हृदयमिदमिदानीं स्वामिसेवोत्सुकत्वात् सहवसतिसनाथं छात्रमित्रे विधेहि ॥ ५६५ सर्वाक्षरनामाक्षर मुख्याक्षराद्येकवर्ण विन्यासात् । निगिरन्ति जपं केचिदहं तु सिद्धक्रमेरेव ।। ५६६ पातालमत्यखेचरसुरेषु सिद्ध क्रमस्य मन्त्रस्य अधिगानात्संसिद्धेः समवाये देवयात्रायाम् । ५६७ पुष्पे: पर्व भिरम्बुजबीज स्वर्णाकंकान्त रत्नैर्वा । निष्कम्पिताक्षवलयः पर्यङ्कस्थो जपं कुर्यात् ।। ५६८ अङ्गुष्ठे मोक्षार्थी तर्जन्यां साधु बहिरिदं नयतु । इतरास्वङ्गलिषु पुनर्बहिरन्तश्चैहिकापेक्षी || ५६९ वचसा वा मनसा वा कार्यो जाप्यः समाहितस्वान्तैः । शतगुणमाद्ये पुण्यं सहस्रसंख्यं द्वितीये तु ।। ५७० दोनों दो वस्तु है । ५६२ ।। अतः हे अनुपम ! जब आप उस प्रकारके विद्वानोंके द्वारा स्तवन करने के योग्य है, तो मुझ मुर्खका उन स्तवनोंसे, जो तुम्हारे गुणसमूहको छूते भी नहीं, आपका स्तवन करना व्यर्थ हैं । किन्तु स्तवन करना कठिन होते हुए भी आपको नमस्कार करना तो सरल है उसमें मैं मूक कैसे रह सकता हूँ । अतः हे स्वामिन्! मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥५६३॥ हे भगवन्! आप जगत् के नेत्र है, समस्त पदार्थोंके ज्ञानरूपी तेजके स्थान हैं, महान् हैं, समस्त शास्त्रोंमें आपके गुणों का स्मरण किया गया हैं, विनत मनुष्योंके हृदयोंको आनन्द देनेके विषय में आप महान् उदार है अतः मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ । आशा है आप याचकसे विमुख नहीं होंगे अर्थात् मेरी प्रार्थना पूरी करेंगे । ५६४ || भगवन्! आपके प्रसादसे मानवीय और दैवीय लक्ष्मीके नेत्रोंके द्वारा मेरे जानेकी शोभा तो बहुत काल हुआ तभी : चरितार्थ हो चुकी है। अब तो मेरा हृदय आपकी सेवाके लिए उत्सुक है इसलिए अब मेरे हृदयको अपने निवाससे सनाथ करोमेरे हृदय में बसो | ५६५ ॥ (अब जप करने की विधि बतलाते हैं -) जप विधि कोई 'णमो अरहंताणं' आदि पूरे नमस्कार मन्त्रसे जाप करना बतलाते हैं । कोई अरहन्त सिद्ध आदि पच परमेष्ठी के नामाक्षरोंसे जप करना बतलाते है । कोई पंच परमेष्ठीके वाचक 'अ सि आ उ सा' इन मुख्य अक्षरोंसे जप करना बतलाते है । कोई 'ओ' अथवा 'अ' आदि एक अक्षरसे जप करना बतलाते है, किन्तु मै ( ग्रन्थकार ) तो अनादि सिद्ध पञ्चनमस्कार मन्त्रसे ही जप करना बतलाता हूँ ।। ५६६ ।। पाताल लोकमं अर्थात् भवनवासी और व्यन्तर देवोंमें, मनुष्यों में, विद्याधरोंमें वैमानिक देवों में, जनसमाज में और देवयात्रामें सिद्धिदायक होने से पञ्चनमस्कारमन्त्रका सर्वत्र अति आदर है ।। ५६७ ।। पर्यङ्क आसन से बैठकर, इन्द्रियोंको निश्चल करके पुष्पोंसे या अँगुली के पर्वोंसे या कमलगट्टोंसे या सोने अथवा सूर्यकान्त मणिके दानोंसे अथवा रत्नोंसे नमस्कारमन्त्रका जप करना चाहिए || ५६८ ।। मोक्ष के अभिलाषी जपकर्ताको अंगूठेपर मालाको रखकर अंगूठेके पासवाली तर्जनी अंगुली द्वारा सम्यक् रीतिसे बाहरकी ओर जप करना चाहिए। और इस लोकसम्बन्धी किसी शुभ कामनाकी पूर्ति के अभिलाषीको शेष अंगुलियोंके द्वारा बाहर या अन्दर की ओर जप करना चाहिए ||५६९ || मनको स्थिर करके वचनसे या केवल मनसे जप करना चाहिए । बोल-बोलकर जप करनेसे सौगुना पुण्य होता है, किन्तु मन-ही-मन में जप करनेसे हजारगुना पुण्य ! www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only १९१
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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