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________________ ४३० श्रावकाचार संग्रह इच्चैवमाइ बहवो दोसे' नाऊण जूयरमणम्मि । परिहरियव्वं णिच्चं दंसणगुणमुव्वहंतेण ॥ ६९ मद्यदोष- वर्णन मज्जेण णरो अवसो कुणेड कम्माणि णिदणिज्जाहूं । इहलोए परलोएअणुहवइ अनंतयं दुक्खं ॥७० अघिओ विचिट्ठो पडेइ रत्थाययंगणे मत्तो । पडियस्य सारमेया वयणं विलिति जिन्भाए । ७१ उच्चारं परसवणं तत्थेव कुणंति तो समुल्लवइ । पडिओ वि सुरा मिट्ठो पुणो वि मे देइ मूढमई ।। ७२ food अजाण माणस्स हिप्पइ परेहिं । लहिऊण किंचि सण्णं इदो तदो धावइ खलंतो ॥७३ जेणज्ज मज्झ दव्वं गहियं दुट्ठेण से जमो कुद्धो । कहि जाइ सो जिवंतो सीसं छिदामि खग्गेण । ७४ एवं सो गज्जतो कुविओ गंतूण मंदिरं णिययं । धित्तूण लउडि सहसा रुट्ठो भंडाई फोडेइ । ७५ णिययं पि सुयं बहिण अणिच्छमाणं बला विधंसेइ । जंपइ अजंणिज्जं ण विजाणइ कि प मयमत्तो ॥ ७६ अवराई बहुसो काऊण बहूणि लज्जणिज्जाणि । अणुबंधइ बहु पावं मज्जस्स वसंगदो संतो ॥७७ पावेण तेण बहुसो जाइ जरा मरणसावयाइण्णे । पावइ अनंतदुक्खं पडिओ संसारकंतारे ॥ ७८ एवं बहुपया दो णाऊण 'मज्जपाणम्मि : मण वयण- काय-कय- कारिदाणुमोएहि वज्जिज्जो ॥ ७९ निरन्तर चिन्तातुर रहता है ।। ६८ ।। जुआ खेलने में उक्त अनेक भयानक दोष जान करके दर्शनगुण को धारण करनेवाले अर्थात् दर्शन प्रतिमायुक्त उत्तम पुरुषको जूआका नित्य ही त्याग करना चाहिए ।। ६९ ।। मद्य-पानसे मनुष्य उन्मत्त होकर अनेक निंदनीय कार्योंको करता है, और इसीलिए इस लोक तथा परलोक में अनन्त दुःखो को भोगता हैं ।। ७० । मद्यपायी उन्मत्त मनुष्य लोकमर्यादाका उल्लंघन कर बेसुध होकर रथ्यांगण ( चौराहे ) में गिर पडता है और इस प्रकार पडे हुए उसके (लार बहते हुए) मुखको कुत्ते जीभ से चाटने लगते हैं ।। ७१ ।। उसी दशा में कुत्ते उसपर उच्चार ( टट्टी) और प्रस्रवण (पेशाब) करते हैं । किन्तु वह मूढमति उसका स्वाद लेकर पडे-पडे ही पुनः कहता है कि सुरा (शराब) बहुत मिठी हैं, मुझे पीनेको और दो ।। ७२ ।। उस बंसुध पडे हुए मद्यपायी के पाम जो कुछ द्रव्य होता है, उसे दूसरे लोग हर ले जाते हैं । पुनः कुछ संज्ञाको प्राप्तकर अर्थात् कुछ होश में आकर गिरता पडता इधर-उधर दौडने लगता है ।। ७३ ।। और इस प्रकार बकता जाता है कि जिस बदमाशने आज मेरा द्रव्य चुराया है और मुझे क्रुद्ध किया है, उसने यमराजको ही क्रुद्ध किया है. अब वह जीता बचकर कहाँ जायगा, मैं तलवार से उसका शिर का गा ।। ७४ ।। इस प्रकार कुपित वर गरजता हुआ अपने घर जाकर लकडीको लेकर रुष्ट हो सहसा भांडों ( बर्तनों) को फोडने लगता है ।। ७५ ।। वह अपने ही पुत्रको बहिनको, और अन्य भी सबको - जिनको अपनी इच्छाके अनुकूल नहीं समझता है, बलात् मारने लगता है और नहीं बोलने योग्य वचनोंको बकता है । मद्य - पानसे प्रबल उन्मत्त हुआ वह भले-बुरेको कुछ भी नहीं जानता है ।। ७६ ।। मद्यपानके वशको प्राप्त हुआ वह इन उपर्युक्त कार्योंको, तथा और भी अनेक लज्जा-योग्य निर्लज्ज कार्योंको करके बहुत पापका बंध करता है ।। ७७ । उस पापसे वह जन्म, जरा और मरणरूप श्वापदों (सिंह, व्याघ्र आदि क्रूर जानवरोंसे) आकीर्ण अर्थात् भरे हुए संसार रूपी कान्तार ( भयानक वन ) में पडकर अनन्त दुःखको पाता है ।। ७८ ।। इस तरह मद्यपान में अनेक प्रकारके दोषोंको जान करके मन, वचन और काय, तथा कृत, कारित और अनुमोदनासे उसका १ झ 'दोषा' इति पाठः । २ ब. रत्थाइयंगणे । प. रत्थायंगणे । ३ झ. नाऊण । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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