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________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार उंबर-वड-पिप्पल-पिपरीय'-संधाण-तरुपसूणाई ताई परिवज्जियव्वाइं ।। ५८ जूयं मज्जं मंसं वेसा पारद्धि-चोर-परयारं । दुगइगमणस्सेदाणि हेउभूदाणि पावाणि ॥ ५९॥ द्यूतदोष-वर्णन जयं खेलंतस्स हु कोहो माया य माण-लोहा य । एए हवंति तिव्वा पावइ पावं तदो बहुगं ।। ६० पावेण तेण जर-मरण-वीचिपउरम्मि दुक्खसलिलम्मि। चउगइगमणावत्तम्मि हिंडइ भवसमुद्दम्मि६१ तत्थ वि दुक्खमणतं छेयण-भेयण विकतणाईणं । पावइ सरणविरहिओ जूयस्य फलेण सो जीवो ६२ ण गणेइ इट्ठमित्तं ण गुरुं ग य मायरं पियरं वा । जूवंधो वुज्जाइं कुणई अकज्जाइंबहुयाइं ॥६३ सजणे य परजणे वा देसे सव्वत्थ होइ जिल्लज्जो। माया वि ण विस्सासं वच्चइ जयं रमंतस्स ।। ६४ अग्गि-विस-चोर-सप्पा दुक्खं थोवं कुणंति" इहलोए दुक्खं जणेइ जूयं परस्स भयसयसहस्सेसु ।। ६५ अक्खे हिरो रहिओणमणइ सेसिदिएहि वेएडा जयंधोणय केण विजाणइ संपूण्णकरणो वि॥६६ अलियं करेइ सव्ह जंपइ मोसं भणेइ अइदुळं। पासम्मि बहिणि-मायं सिसु पि हणेइ कोहंधो । ६७ ण य भुंजइ आहारं णि ण लहेइ रत्ति-दिण्णं ति कत्थ विण कुणेइ रइं अत्थइ चिताउरो णिच्च।।६८ है, वह दर्शनश्रावक कहा गया है ।। ५७ ॥ ऊंबर, बड, पोपल, कटूमर और पाकर फल, इन पांचों उदुम्बर फल, तथा सधानक (अचार) और वृक्षोंके फूल ये सब नित्य त्रसजीवोंसे संसिक्त अर्थात् इसलिए इन सबका त्याग करना चाहिए ।। ५८॥ जआ, शराब, मांस, वेश्या, शिकार, चोरी, परदार-सेवन, ये सातों व्यसन दुर्गति-गमनके कारणभूत पाप हैं ॥ ५९ ।। जूआ खेलनेवाले पुरुषके क्रोध, मान, माया और लोभ ये चारों कषाय तीव्र होती हैं, जिससे जीव अधिक पापको प्राप्त होता है ।। ६० ।। उस पापके कारण यह जीव जन्म, जरा मरणरूपी तरंगोंवाले, दुःखरूप सलिलसे भरे हुए और चतुर्गति-गमनरूप आवों ( भंवरों) से संयुक्त ऐसे संसार-समुद्र में परिभ्रमण करता है ।। ६१ ।। उस संसारमें जुआ खेलनेके फलसे यह जीव शरण-रहित होकर छेदन, भेदन, कर्तन आदिके अनन्त दुःखको पाता है, ।। ६२ ।। जूआ खेलनेसे अन्धा हुआ मनुष्य इष्ट-मित्र, को कुछ नहीं गिनता है, न गुरुको, न माताको और न पिताको ही कुछ समझता है, किन्तु स्वच्छन्द होकर पापमयी बहुतसे अकार्योंको करता है ।। ६३ ।। जूआ खेलनेवाला पुरुष स्वजनमें, परजनमें, स्वदेशमें, परदेशमें, सभी जगह निर्लज्ज हो जाता है। जूआ खेलनेवाले का विश्वास उसकी माता तक भी नहीं करती है ।। ६४ ।। इस लोकमें अग्नि, विष, चोर और सर्प तो अल्प दुःख देते हैं, किन्तु जुआका खेलना मनुष्यके हजारों लाखों भवोंमें दुःखको उत्पन्न करता है ।। ६५ ।। आँखोंसे रहित मनुष्य यद्यपि देख नहीं सकता है, तथापि शेष इन्द्रियोंसे तो जानता है । परन्तु जूआ खेलने में अन्धा हुआ मनुष्य सम्पूर्ण इन्द्रियोंवाला हो करके भी किसीके द्वारा कुछ नहीं जानता है।। ६६ ।। वह झूठी शपथ करता है, झूठ बोलता है, अति दुष्ट वचन कहता है और क्रोध है, अति दुष्ट वचन कहता है और क्रोधान्ध होकर पासमें खडो हुई बहिन, माता और बालकको भी मारने लगता है ।। ६७ ।। जुआरी मनुष्य चिन्तासे न आहार करता है, न रात-दिन नींद लेता है, न कहीं पर किसी भी वस्तुसे प्रेम करता है, किन्तु १ द. पंपरीय। २ प. संहिद्धाई। ३ झ. 'लोहो' इति पाठः। ४ व. विरहियं इति पाठः । ५ ब. 'करंति' इति पाठः । ६झ -'वरो' इति पाठः। * द्यतमध्वमिषं वेश्याखेटचौर्यपराङ्गनाः। सप्तव तानि पापानि व्यसनानि त्यजेत्सुधीः ।। ११४ ।। गुण श्राव० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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