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________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार मधुदोष-वर्णन जह मज्ज तह य महू जणयदि पावं णरस्स अइबहुयं । असुइ व्व णिदणिज्ज वज्जेयन्वं पयत्तेण ।। ८० दळूण णसणमझे पडियं जइ मच्छियं पिणिट्टि वइ । कह मच्छियंडयाणं णिज्जासं' णिग्घिणो पिबइ ।। ८१ भो भो जिभिदियलुद्धयाणमच्छरयंपलोएह किमि मच्छियणिज्जासं महं पवित्तं भणंति जटो।।८२ लोगे वि सुप्पसिद्धं बारहंगामाइ जो डहइ अदओ। तत्तो सो अहिययरोपाविछो जो महुंहणइ।। ८३ जो अवलेहइ' णिच्चं णि स्यं सो जाइ"णस्थि संदेहो । एवं णाऊण फुडं वज्जेयव्वं महुं तम्हा । ८४ मांसदोष-वर्णन मंसं अमेज्झसरिसं किमिकुलभरियं दुगंधवीमच्छं । पाएण छिवेउं जंण तीरए तं कह भोत्तुं ॥ ८५ मंसासणेण वड्ढइ दप्पो दप्पेण मज्जमहिलसइ । जूयं पि रमइ तो तं पि वण्णिए पाउणइ दोसे ।। ८६ लोइय सस्थम्मि वि वणियं जहा गयणगामिणो विप्पा। भुवि मंसासणेण पडिया तम्हा ण पउंजए' मंसं ॥ ८७ वश्यादोष-वर्णन कारुय-किराय-चंडाल-डोंब पारसियाणमुच्छिठें । सो भक्खेइ जो वसइ एयरत्तिपि वेस्साए ॥८८ त्याग करना चाहिए।॥७९।। मद्यपानके समान मधु-सेवन भी मनुष्यके अत्यधिक पापको उत्पन्न करता है । अशुचि (मल-मूत्र वमनादिक) के समान निंदनीय इस मधुका प्रयत्नपूर्वक त्याग करना चाहिए ।। ८० ।। भोजनके मध्यमें पड़ी हुई मक्खी को भी देखकर यदि मनुष्य उसे उगल देता है अर्थात् महमें रखे हुए ग्रास को थूक देता है तो आश्चर्य है कि वह मधु-मक्खियोंके अंडोके निर्दयतापूर्वक निकाले हुए घृणित रसको अर्थात् मधुको निर्दय या निघृण बनकर कैसे पी जाता है ।। ८१॥ भो-भो लोगो, जिन्हेन्द्रिय-लब्धक (लोलपी) मनुष्योंके आश्चर्य को देखो, कि लोग मक्खियोंके रसस्वरूप इस मधुको कैसे पवित्र कहते हैं ।। ८२ ।। लोकमें भी यह कहावत प्रसिद्ध है कि जो निर्दयी बारह गाँवोंको जलाता है, उससे भी अधिक पापी वह है जो मध-मक्खियोंके छत्तेको तोडता है ।। ८३ ।। इस प्रकार के पाप-बहुल मधुको जो नित्य चाटता है-खाता है, वह नरकमें जाता है, इसमें कोई सन्देह नहीं है । ऐसा जानकर मधुका त्याग करना चाहिए ।। ८४ ।। मांस अमेध्य अर्थात् विष्टाके समान है, कृमि अर्थात् छोटे-छोटे कीडोंके समूहसे भरा हुआ है, दुर्गन्धियुक्त है, बीभत्स है और पैरसे भी छुने योग्य नहीं है, तो फिर भला वह मांस खानेके लिए योग्य कैसे हो सकता है ।। ८५ । मांस खानेसे दर्प बढता है, दर्पसे वह शराब पीने की इच्छा करता है और इसीसे वह जुआ भी खेलता है । इस प्रकार वह प्रायः ऊपर वर्णन किये गये सभी दोषोंको प्राप्त होता है ।। ८६ ।। लौकिक शास्त्रमें भी ऐसा वर्णन किया गया है कि गगनगामी अर्थात् आकाशमें चलनेवाले भी ब्राह्मण मांसके खानेसे पृथ्वीपर गिर पडे । इसलिए मांसका उपयोग नहीं करना चाहिए ।। ८७ ।। जो कोई भी मनुष्य एक रात भी वेश्याके.साथ निवास करता है वह कारु अर्थात् लुहार, चमार, किरात (भोल), चंडाल, डोंब (भंगी) और पारसी आदि नीच लोगोंका १ झ. निर्यासं निश्चोटनं निबोडनमिति । प. नि:पीलनम् । ध. निर्यासम् । २ ण. ध. मच्छेयर । ३ आस्वादयति । ४ झ नियं । ५ प. जादि । ६ झ. नाऊण । ७ ब. लोइये। ८ इ. 'ण वज्जए', भ 'ण पवज्जए' इति पाठः । ९ झ. ट. वेसाए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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