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________________ ४३२ श्रावकाचार-संग्रह रतं जाऊन ' रं सव्वस्तं' हरइ वंचणसएहि । काऊण मुयइ पच्छा पुरिसं चम्मट्टिपरिसेसं ॥ ८९ पण पुरओ एस्स सामी मोत्तूणं णत्थि मे अण्णो । उच्च अण्णस्स पुणो करेइ चाडूणि बहुयाणि ।। ९० मणी कुलजो सूरो विकुणइ दासत्तणं पि णोचाणं । वेस्सा 'कएण बहुगं अवमाणं सहइ का मंधी ॥। ९१ जे मज्जमंसदोसा वेस्सा' गमणम्मि होंति ते सध्वे । पावं पि तत्थ हिट्ठ पावइ नियमेण सविसेसं ॥ ९२ पावेण ते दुक्खं पावइ संसार-सायरे घोरे । तम्हा परिहरियव्वा वेस्सा" मण-- वयण काहि ॥ ९३ पारद्विदोष-वर्णन सम्मत्तस्स पहाणो अणुकंवा वणिओ गुणी जम्हा । पारद्धिरमणसोलो सम्मत्तविराहओ तम्हा ।। ९४ दट्ठूण मुक्ककेसं पलायमाणं तहा पराहुतं । रद ' धरियतिणं सूरा कयापराहं विण हणंति ।। ९५ frei पलायमाणो तिण' 'चारी तह णिरवराहो वि । कह जिग्घणो हणिज्जइ' ' आरण्णणिवासिणो वि मए ॥ ९६ गो-बंभणित्थिघायं परिहरमाणस्स होइ १२ जह धम्मो । सव्वेसि जीवाणं दयाए ता कि ण सो हुज्जा ।। ९७ १३ जूठा खाता है । क्योंकि, वेश्या इन सभी नीच लोगों के साथ समागम करती है ॥ ८८ ॥ वेश्या, मनुष्य को अपने ऊपर आसक्त जानकर सैकडों प्रवंचनाओ से उसका सर्वस्व हर लेती है और पुरुषको अस्थि - चर्म परिशेष करके, अर्थात् जब उसमें हाड और चाम ही अवशेष रह जाता है, तब उसको छोड़ देती है ।। ८९ ।। वह एक पुरुषके सामने कहती है कि तुम्हें छोडकर अर्थात् तुम्हारे सिवाय मेरा कोई स्वामी नहीं है । इसी प्रकार वह अन्य से भी कहती है और अनेक चाटुकारियां अर्थात् खुशामदी बातें करती ॥ ९० ॥ मानी, कुलीन और शूरवीर भी मनुष्य वेश्या में आसक्त होनेसे नीच पुरुषोंकी दासता ( नौकरी या सेवा) को करता है और इस प्रकार वह कामान्ध होकर वेश्याओं के द्वारा किये गये अनेकों अपमानोंको सहन करता है ।। ९१ ।। जो दोष मद्य और मांसके सेवन में होते हैं, वे सब दोष वेश्यागमन में भी होते हैं । इसलिए वह मद्य और मांस सेवनके पापको तो प्राप्त होता ही है, किन्तु वेश्या सेवनके विशेष अधम पापको भी नियम से प्राप्त होता है ।। ९२ ।। वेश्या सेवन-जनित पाप से यह जीव घोर संसार-सागरमें भयानक दुःखोंको प्राप्त होता है, इसलिए मन, वचन और कायसे वेश्याका सर्वथा त्याग करना चाहिए ।। ९३ ।। सम्यग्दर्शनका विराधक होता है ।। ९४ ।। जो मुक्त केश हैं, अर्थात् भयके मारे जिनके रोंगटें (बाल) खडे हुए हैं' ऐसे भागते हुए तथा पराङ्मुख अर्थात् अपनी ओर पीठ किये हुए हैं और दाँतों में तृण अर्थात् घासको दाबे हुए हैं, ऐसे अपराधी भी दीन जीवोंको शूरवीर पुरुष नहीं मारते हैं ।। ९५ ।। भय के कारण नित्य भागनेवाले, घास खानेवाले तथा निरपराधी और वनोंमें रहनेवाले ऐसे मी मृगोंको निर्दयी पुरुष कैसे मारते हैं ? ( यह महा आश्चर्य है ! ) ।। ९६ ।। यदि गौ, ब्राह्मण और स्त्री-घातका परिहार करनेवाले पुरुषको धर्म होता है तो सभी जीवों की दयासे वह धर्म क्यों नहीं होगा ? ।। ९७ ।। जिस १ झ. नाऊण, २ ब. सव्व सहरइ । ३ झ. व. 'णत्थि' स्थाने 'तं ण' इति पाथ: । ४ झ. वुच्चइ । ५, ६, ७ झ. ब. वेसा० । ८ झ. दंत० । ९ ब. तणं । १० ब. तण० । ११ झ. ब. हणिज्जा । १२ ब. हवइ । १३ ब. दयायि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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