________________
वसुनन्दि-श्रावकाचार
४३३ गो-बंभण-महिलाणं विणिवाए हवइ जह महापावं । तह इयरपाणिघाए वि होइ पावं ण संदेहो।। ९८ महु-मज्ज-मंससेवी पावइ पावं चिरेण जं घोरं । तं एयदिणे पुरिसो लहेइ पारद्धि रमणेण ।। ९९ संसारम्मि-अणंतं दुक्खं पाउणदि तेण पावेण । तम्हा विवज्जियव्वा पारद्धी देसविरऐण ।। १००
चौर्यदोष-वर्णन परदव्वहरणसीलो इह-परलोए असायबहुलाओ।पाउणइ जायणाओण कयावि सुहं पलोएइ ।। १०१ हरिऊण परस्स धणं चोरोपरिवेवमाणसव्वंगो। चहऊण गिययगेह' धावइ उप्पहेण संतत्तो' ।। १०२
कि केण वि विट्ठो हं ण वेत्ति हियएण धगधगतेण । ल्हुक्कद्द पलाइ' पखलइ णि ण लहेइ भयविट्ठो' ।। १०३ ण गणेइ माय-वप्पं गुरु-मित्तं सामिणं तस्वि वा।।
पबलेण" हरइ छलेणं किंचिण्ण किपि जंतेसि। १०४ लज्जातहाभिमाणं जस-सौलविणासमादणासंच। परलोयभयं चोरो अगणंतो साहसं कुणइ ।। १०५ हरमाणो परदव्वं दळूणारक्खिएहि तो सहसा । रज्जूहि बंधिऊणं धिप्पइ सो मोरबंधेण ॥ १०६ हिंडाविज्जइ टिटे रत्थासु चढाविऊण खरपुटिं। वित्थारिज्जइ चोरो एसो त्ति जणस्स मज्झम्मि।। प्रकार गौ, ब्राह्मण और स्त्रियों के मारने में महापाप है, उसी प्रकार अन्य प्राणियोंके घातमें भी महापाप होता है, इसमें कोई सन्देह नहीं है ।। ९० ।। चिरकाल तक मधु, मद्य और मांसका सेवन करनेवाला जिस घोर पापको प्राप्त होता है, उस पापको शिकारी पुरुष एक दिन भी शिकार के खेलनेसे प्राप्त होता है ।। ९९ ।। उस शिकार खेलनेके पापसे यह जीव ससारमें अनन्त दुःखको प्राप्त होता है। इसलिए देशविरत श्रावकको शिकारका त्याग करना चाहिए ॥१००। पराये द्रव्यको हरनेवाला, अर्थात् चोरी करनेवाला मनुष्य इस लोक और परलोक में असाता-बहुल, अर्थात् प्रचर दुःखोंसे भरी हई अनेकों यातनाओंको पाता है और कभी भी सूखको नहीं देखता है।।१०।। पराये धनको हर कर भय-भीत हआ चोर थर-थर काँपता है और अपने घरको छोडकर संतप्त होता हुआ वह उत्पथ अर्थात् कुमार्गसे इधर-उधर भागता फिरता है ।। १०२ ।। क्या किसीने मुझे देखा है, अथवा नहीं देखा है, इस प्रकार धक् धक् करते हुए हृदयसे कभी वह चोर लुकता-छिपता है, कभी कहीं भागता है और इधर-उधर गिरता है तथा भयाविष्ट अर्थात् भयभीत होनेसे नींद नहीं ले पाता है।॥ १०३ ।। चोर अपने माता, पिता, गरु, मित्र, स्वामी और तपस्वीको भी कुछ नहीं गिनता है; प्रत्युत जो कुछ भी उनके पास होता है, उसे भी बलात् या छलसे हर लेता है ॥ १०४ ॥ चोर लज्जा, अभिमान, यश और शीलके विनाशको, आत्माके विनाशको और परलोकके भयको नहीं गिनता हुआ चोरी करनेका साहस करता है। १०५ ।। चोरको पराया द्रव्य हरते हुए देखकर आरक्षक अर्थात् पहरेदार कोटपाल आदिक रस्सियोंसे बांधकर, मोरबंधसे अर्थात कमरकी ओर हाथ बाँधकर पकड लेते हैं । १०६ । और फिर उसे टिटा अर्थात् जुआखाने या गलियोंमें घुमाते हैं और गधेकी पीठ पर चढाकर 'यह चोर है' ऐसा लोगोंके बीच में घोषित कर उसकी बदनामी फैलाते हैं । १०७ ॥ और भी जो कोई मनुष्य दूसरेका धन हरता है, वह इस
१ ब. णिययप्रगेहं । २ झ. ब. संत्तट्ठो। ३ म. पलायमाणो। ४ झ. भयपत्थो, ब. झयवच्छो । ... ५झ.ब. पच्चेलिउ । ६झ कि घणं. व. कि वणं ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org