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________________ ४४६ श्रावकाचार-संग्रह पात्रभेद-वर्णन तिविहं मुह पत्तं उत्तम-मज्झिम-जहण्णभेएण वय-णियम-संजमधरो उत्तमपत्तंहवे साहू ॥२२१ (१ एयारस ठाणठिया मज्झिमपत्तं खु सावया भणिया । अविरयसम्माइट्ठी जहण्णपत्तं मुणयन्वं ।। २२२ (२) वय-तव-सीलसमग्गो सम्मत्तविवज्जिओ कुपत्तं तु । सम्मत्त-सोल-वयवज्जिओ अपत्तं हवे जोओ ॥ २२३ (३) दातार-वर्णन सद्धा भत्ती तुट्ठी विण्णाणमलुद्धया' खमा सत्ती। जत्थेदे सत्त गुणा तं दायारं पसंसंति ॥२२४ (४) दानविधि-वर्णन पडिगहमुच्चट्ठाणं पादोदयमच्चणं च पणमं च । मणबयण-कायसुद्धी एसणसुद्धी य दाणविही ॥ २२५ (५) पत्तं णियघरदारे दळूणण्णत्थ वा विमग्गित्ता। पडिगहणं कायव्वं णमोत्थ ठाहु त्ति भणिऊण ।। २२६ णेऊण णिययगेहं गिरवज्जाणु तह उच्चठाणम्मि । ठविऊण तओ चलणाण धोवणं होइ कायब्वं ॥ २२७ पाओदयं पवित्तं सिरम्मि काऊण अच्चणं कुज्जा। गंधक्खय-कुसुम-वज्ज-दीव-धूवेहि य फलेहिं ।। २२८ उत्तम, मध्यम और जघन्यके भेदसे तीन प्रकारके पात्र जानना चाहिए । उनमें व्रत, नियम और संयमका धारण करनेवाला साधु उत्तम पात्र है ।। २२१ ॥ ग्यारह प्रतिमा-स्थानोंमें स्थित श्रावक मध्यम पात्र कहे गये हैं, और अविरत सम्यग्दृष्टि जीवको जघन्य पात्र जानना चाहिए ।। २२२ ।। जो व्रत, तप और शीलसे सम्पन्न है, किन्तु सम्यग्दर्शनसे रहित है, वह कुपात्र है । सम्यक्त्व, शील और व्रतसे रहित जीव अपात्र है ॥ २२३ ।।। जिस दातारमें श्रद्धा, भक्ति, संतोष, विज्ञान, अलुब्धता, क्षमा और शक्ति,, ये सात गुण होते हैं, ज्ञानी जन उस दातारकी प्रशंसा करते हैं ।। २२४ ।। प्रतिग्रह अर्थात् पडिगाहना-सामने जाकर लेना, उच्चस्थान देना अर्थात् ऊँचे आसन पर बिठाना, पादोदक अर्थात् पैर धोना, अर्चा करना, प्रणाम करना, मनःशुद्धि, वचनशुद्धि, कायशुद्धि और एषणा अर्थात् भोजनकी शुद्धि, ये नौ प्रकारको दानकी विधि हैं ॥ २२५ ।। पात्रको अपने घरके द्वारपर देखकर, अथवा अन्यत्रसे विमार्गण कर-खोजकर, 'नमस्कार हो, ठहरिए,' ऐसा कहकर प्रतिग्रहण करना चाहिए ।। २२६ ॥ पुनः अपने १ ब. मलुद्धदया। २ प. ध सत्तं । ३ ध. उच्च । (१) पात्रं त्रिधोत्तमं चैतन्मध्यमं च जघन्यकम । सर्वसंयमसंयक्त। साध: स्यात्पात्रमत्तमम् ॥ १४८ ।। (२) एकादशप्रकारोऽसौ गृही पात्रमनुत्तमम् । विरत्या रहितं सम्यग्दृष्टिपात्रं जघन्यकम्।। १४९ ।। (३) तपःशीलवतैर्युक्तः कुदृष्टिः स्यात्कुपात्रकम् । अपात्रं व्रतसम्यक्त्वतपःशीलविवर्जितम् ।। १५० ।। -गुण० श्रा० (४) श्रद्धा भक्तिश्च विज्ञानं तुष्टिः शक्तिरलुब्धता । क्षमा च यत्र सप्तैते गुणा दाता प्रशस्यते ।। १५१ ।। (५) स्थापनोच्चासनपाद्यपूजाप्रणम नैस्तथा । मनोवाक्कायशुद्धया वा शुद्धो दानविधिः स्मृतः ।। १५२ ॥ --गुण० श्राव० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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