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________________ श्रावकाचार-संग्रह अष्टमः परिच्छेदः जिनं प्रणम्य सार्वीयं सर्वज्ञं सर्वतोमुखम् । आवश्यकं मया षोडा संक्षेपेण निगद्यते ।। १ आगमोऽनन्तपर्यायो मतो जैनो व्यवस्थितः । अभिधातुं ततः केन विस्तरेण स शक्यते । २ मत्तोऽपि सन्ति ये बालाश्चित्राकारेषु जन्तुषु । अस्यावबोधतस्तेषामुपकारो भविष्यति ॥ ३ आवश्यकं न कर्त्तव्यं नैष्कल्यादित्यसाम्प्रतम् । प्रशास्ताध्यवसायस्य फलस्यात्रोपलब्धितः ॥ ४ प्रशस्ताध्यवसायेन संचित कर्म नाश्यते । काष्ठं काष्ठान्त केनेव दीप्यमानेन निश्चितम् ।। ५ जायते न स सर्वत्र न वाच्यमिति कोविदः । स्फुटं सम्यक्कृते तत्र तस्य सर्वत्र सम्भवात् ।। ६ न सम्यक्करणं तस्य जायते ज्ञानतो विना । शास्त्रतो न विना ज्ञानं शास्त्रं तेनाभिधीयते ॥ ७ लाभ पूजायशोऽथित्वैस्तस्य सम्यक्कृतावपि । प्रशस्ताध्यवसायस्य सम्भवो नोपलभ्यते ।। ८ तदयुक्तं यतो नेर्द सम्यक्करणमुच्यते । अत एवात्र मृग्यन्ते सम्यक्कृत्यधिकारिणः ।। ९ संसारदेहभोगानां योऽसारत्वमवेक्षते । कषायेन्द्रिययोगानां जयनिग्रहरोधकृत् ॥ १० अनेकयोनिपाताले विचित्रगतिपत्तने । जन्ममृत्युजरावर्ते मूरिकल्मषपाथसि ।। ११ संसारसागरे भीमे दुःखकल्लोलसङ्कुले । रागद्वेषमहान रौद्रव्याधिझषाकुले ॥ १२ ३३४ सर्व हितकारी सर्वज्ञ और सर्वदर्शी जिनदेवका नमस्कार करके मैं संक्षेपसे छह आवश्यकोंको कहता हूँ || १|| जिन भाषित आगम यतः अनन्त पर्यायरूप अवस्थित हैं, अतः उसे विस्तार से कहने के लिए कौन समर्थ हो सकता हैं || २ || नाना प्रकारके प्राणियों में जो मेरेसे भी अल्पबुद्धिवाले मनुष्य हैं उनका उपकार मेरे द्वारा किये जानेवाले वर्णनसे होगा, यह समझकर में उनका वर्णन करता हूँ ||३|| कितने ही लोग कहते है कि आवश्यकों का पालन नहीं करना चाहिए, क्योंकि उनका कोई फल नहीं है। आचार्य उत्तर देते हैं कि यह कथन अयुक्त है, क्योंकि आवश्यक करनेमें प्रशस्त अध्यवसाय परिणाम-रूप फलकी प्राप्ति पायी जाती हैं। इस प्रशस्त अध्यवसायके द्वारा संचित कर्म विनाशको प्राप्त होता हैं जैसे कि प्रदीप्त अग्निके द्वारा काष्ठ निश्चित रूपसे भस्म हो जाता है ।।४-५ ।। यदि कहा जाय कि यह कर्म विनाशरूप फल सब लोगोंके नहीं देखा जाता हैं । विज्ञजनोंको ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि आवश्यकों के सम्यक् प्रकारसे करने पर उनका फल निश्चितरूपसे सर्वत्र संभव है || ६ || आवश्यकोंका सम्यक् प्रकारसे करना ज्ञानके बिना नहीं होता है और ज्ञानकी प्राप्ति शास्त्र के बिना नहीं होती हैं, इस कारण शास्त्र-स्वाध्याय करना आवश्यक कहा गया है ।।७।। यदि कहा जाय कि लाभ पूजा और यशकी इच्छासे सम्यक् प्रकार आवश्यकोंके करने पर भी प्रशस्त अध्यवसायका होना संभव नहीं पाया जाता है, तो यह कथन अयुक्त हैं, क्योंकि लाभ पूजा आदिकी इच्छासे आवश्यकोंके करनेको सम्यक् प्रकारसे करना नहीं कहा जाता है । इसीलिए ही सम्यक् प्रकारसे आवश्यक करनेके अधिकारी पुरुष यहाँपर अन्वेषण किये जाते है ।।८ - ९ || अब आचार्य आवश्यक करनेके योग्य पुरुषका स्वरूप कहते हैं- जो निरन्तर संसार देह और इन्द्रिय-भोगोंकी असारता को देखता हो, कषाय-जयी हो, इन्द्रिय-निग्रही हो और मन वचन कायरूप योगोंका निरोध करनेवाला हो ||१०|| तथा अनेक योनिरूप पातालवाले, विचित्र गतिरूप नगरवाले, जन्म-जरा-मरणरूप भँवर वाले, अत्यन्त मलिन जलसे भरे हुए, दुःखरूप कल्लोलोंसे व्याप्त, राग-द्वेषरूप महान् मगरोंसे और रौद्र व्याधिरूप मीनोंसे आकुलित ऐसे महा भयंकर संसार सागर में चिरकालसे परिभ्रमण करने वाले जीवोंके जिनेन्द्रदेवके चरणोंकी वन्दनाका प्राप्त करना अत्यन्त कठिन हैं, ऐसा अपने हृदय में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org:
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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