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________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः ३३५ चिरं बम्भ्रम्यमाणानां जिनेन्द्रपक्वन्दना । दुरापा जायतेऽत्यन्तमिति यो हृदि मन्यते ॥ १३ अनर्थकारिणः कान्ताजननीजनकादयः । स्वस्योपकारिणो येन बुध्यन्ते परमेष्ठिनः ।। १४ सर्वाणि गृहकार्याणि परकार्याणि पश्यति । शुद्धधीधर्मकार्याणि निजकार्याणि यः सदा ॥ १५ यौवनं जीवितं धिष्ण्यमैश्वर्य जनपूजितम् । नश्वरं वीक्षते सर्व शरदभ्रमिवानिशम् ॥ १६ दर्शनज्ञानचारित्रत्रितयं भवकानने । नानीते दुर्लभं भूयो भ्रष्टं रत्नमिवाम्बधौ । १७ । मयूरस्येव मेघौघे वियुक्तस्येव बान्धवे । तृष्णार्तस्येव पानीय विवद्धस्येव मोक्षणे ॥ १८ सव्याधेरिव कल्पत्वे विदृष्टेरिव लोचने । जायते यस्य सन्तोषो जिनवक्त्रविलोकन ।' १९ परीषहसहः शान्तो जिनसूत्रविशारदः । सम्यग्दृष्टिरनाविष्टों गरुभक्तः प्रियंवदः ।। २० आवश्यकमिदं धीरः सर्वकर्मविषदनम । सम्यक्र्तमसो योग्यो नापरस्यास्ति योग्यता ॥२॥ औचित्यवेदक: श्राद्धो विधानकरणोद्यतः । कर्मनिर्जरणाकांक्षी स्ववशीकृतमानसः ।। २२ भाक्तिको बुद्धिमानर्थी बहुमानपरायणः । पठने श्रवणे योग्यो विनयोद्यमभूषितः ।। २३ गुणाय जायते शान्ते जिनेन्द्रवचनामृतम् । उपशान्तज्वरे पूतं भैषज्यमिव योजितम् ।। २४ अयोग्य य वचो जन जायतेऽनर्थहेतवे । यतस्तत: प्रयत्नेन मग्यो योग्यो मनीषिभिः ॥ २५ कषायाकूलिते व्यथं जायते जिनशासनम् । सन्निपातज्वरालोढे दत्तं पथ्यमिवौषधम् ।। २६ मानता हो, स्त्री माता पितादि कुटुम्बी जन मेरे अनर्थकारी है, पंच परमेष्ठी ही मेरे उपकारी है, ऐसा जो जानता हो, जो घरके सभी कार्योंको पर-कायं देखता हो, धर्मके कर्मोको जो सदा निज कार्य मानता हो, शुद्ध बुद्धि हो, जो यौवन, जीवन, गृह और लोक-मान्य ऐश्वर्यको निरन्तर शरद् ऋतुके बादलके समान विनश्वर देखता हो, जो भववन में सम्यग्दर्शन ज्ञान चा रत्ररूप रत्नत्रयका पाना समुद्र में गिरे हुए रत्नके समान अति दुर्लभ जानता हो, जिसे जिनेन्द्रदेवके मुख-कमलके अवलोकन करनेपर ऐसा परम सन्तोष प्राप्त होता हो, जैसा कि मयरको मेघ-समहके देखने पर, वियोगी पुरुषको बान्धवके देखनेपर, प्याससे पीडितको जलके देखनेपर,बन्धन-बद्ध पुरुषको बन्धनसे छूटनेपर, व्याधि-युक्त पुरुषको नीरोग होनेपर और अन्धे पुरुषको नेत्र मिलनेपर परम हर्ष होता है। जो हरीषको सहन करनेवाल हो, शान्तस्वभावी हो, जिन आगमम विशारद हो, सम्यग्दष्टि हो, अहकार-रहित हो, गुरुभक्त और प्रिय वक्ता हो, ऐसा धीर वीर पुरुष सव कर्मोके विनाश करनेवाले आवश्यकोंके करने के लिए योग्य हैं। जिसके उपर्युक्त गुण नहीं है. उसके आवश्यकोंके करने की योग्यता नहीं है, ऐसा जानना चाहिए ॥१०-२१॥ आवश्यकोंके करने में उद्यत पुरुष क्षेत्र कालादिका वेत्ता हो, श्रद्धा-युदत हो, कर्मोको निर्जरा करनेका इच्छुक हो, अपने मनको अपने वशम करनेवाला हो, भक्ति-युक्त हो, बुद्धिमान् हो, धर्मार्थी हो, महान् विनय में परायण हो, शास्त्रोंके पठन-श्रवणमें योग्य हो और विनयके साथ आवश्यक करने में उद्यम-संयुक्त हो, वह पुरुष आवश्यकोंके करनेके योग्य हैं । २२-२३।। जिसके कषाय शान्त है, ऐसे पुरुष में जिनेन्द्र के वचनरुप अमृत गुणके लिए होता हैं, जैसे कि जिसका ज्वर उपशान्त हो गया हैं, ऐसे पुरुषको दिया गया शुद्ध औषघि आरोग्य वृद्धि के लिए होता हैं। किन्तु अयोग्य पुरुषके जैन वचन अनर्थ के लिए होते है। इसलिए मनीषी पुरुषोंको प्रयत्नके साथ आवश्यक करने का अधिकारी योग्य व्यक्ति ढूंढना चाहिए क्योंकि कषायसे आकुलित पुरुष में जिनदेवका उपदेशरूप शासन व्यर्थ जाता हैं, जैसे कि सन्निपात ज्वरसे व्याप्त पुरुषको दी गई पथ्य औषधि भी व्यर्थ जाती है ।।२४-२६।। अब आचार्य आवश्यक करनेवाले पुरुषके चिन्ह कहते हैं-जिसे उत्तम धर्म कथा सुनने में आनन्द आता हो, जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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