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________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः परिग्रहत्यागी यो रक्षणोपार्जननश्वरत्वैर्वदाति दुःखानि दुरुत्तराणि । विमुच्यते येन परिग्रहोऽसौ गीतोऽपसगैरपरिग्रहोऽसौ ।। ७५ अनुमतित्यागी आरम्भसन्दर्मविहीनचेताः कायेषु मारीमिव हिस्ररूपाम् । यो धर्मसक्तोऽनुमति न धत्ते निगद्यते सोऽननुमन्तृमुख्यः ॥७६ उद्दिष्टत्यागी यो बन्धुराबन्धुरतुल्यचितो गृहाति भोज्यं नवकोटिशद्धम् । उद्दिष्टवर्जी गणिभिःस गीतो विमीलुकः संसृतियातुधान्याः ॥ ७७ क्रमेणामंश्चित्ते निवर्धात मुदैकादशगुणानलं निन्दागर्हानिहितमनसो येऽस्ततमसः । भवान् द्विवान भ्रान्त्वाऽमरमनुजयो रिमहसो विधूतनोबन्धाः परमपद' मायान्ति सुखवम् ॥ ७८ इदं धत्ते भक्त्या गृहिजनहितं योऽत्र चरितं मवक्रोधायासप्रमहमदनारम्भमकरम् । भवाम्भोधि तीवा जननमरणावर्तनिचितं, वजत्येषोऽध्यात्मामितगतिमतं निर्वृतिपदम् ।। ७९ इत्यमितगत्याचार्यकृतश्रावकाचारे सप्तमः परिच्छेदः समाप्तः ९. परिग्रहत्यागी श्रावक जो परिग्रह रक्षण, उपार्जन, विनाश आदिके द्वारा जीवोंको अति भयंकर दुःखोंको देता हैं, ऐसा समझकर जो सत्पुरुष परिग्रहको छोडता हैं, यह निर्ग्रन्थ पुरुषोंके द्वारा अपरिग्रही श्रावक कहा गया है ।।७५।। १०. अनुमतित्यागी श्रावक __ जो सर्व आरम्भ-परिग्रहसे रहित और धर्ममें आसक्त चित्त पुरुष पापकार्यों में हिंसक मारीके समान प्रवीण अनुमतिको नहीं देता है, वह अनुमति त्यागियोंमें मुख्य कहा जाता है ।।७६।। ११ उद्दिष्टत्यागी श्रा क ___ जो भले और बुरे आहारमें समान चित्त रखने वाला पुरुष नव कोटीसे विशुद्ध भोजनको ग्रहण करता है. वह संसृतिरूप राक्षसोसे भयभीत उद्दिष्टत्यागी श्रावक गुणिजनोंके द्वारा कहा गया हैं ।।७७।। जिनका अज्ञान अन्धकार दूर हो गया है, अपने पापोंकी निन्दा और गर्हामें जिनका चित्त लग रहा हैं, ऐसी जो पुरुष जो क्रमसे हर्ष पूर्वक इन ग्यारह प्रतिमावाले गुणोंको भली भांतिसे चित्तमें धारण करते हैं, वे देव और मनुष्य के दो तीन तेजस्वी भवोंको धारण कर अन्तमें कर्म-बन्धनको दूर करते हुए सुखदायी परम पदको प्राप्त होते हैं ।।७८।। इस प्रकार जो पुरुष इस लोकमें गहस्थजनोंका हितकारी चारित्र भक्तिसे धारण करता हैं, वह मद क्रोध-आयास प्रमोद, कामविकार, और आरम्भ रूप मगर-मच्छोंवाले, जन्म-मरणरूप भ्रमरोंसे व्याप्त इस संसारसमुद्रको तिर करके अतीन्द्रिय अमित ज्ञान-सुखवाले मोक्ष-पदको शीघ्र प्राप्त होता हैं ॥७९॥ इस प्रकार अमितगति-विरचित श्रावकाचारमें सप्तम परिच्छेद समाप्त हुआ। १. मु. पदवी। २. म. सुखदाम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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