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________________ श्रावकाचार-संग्रह प्रोषधोपवासी मन्दीकृताक्षार्थसुखाभिलाषः करोति यः पर्वचतुष्टयेऽपि । मदोपवासं परकर्म मुक्त्वा स प्रोषधी शुद्धधियामभीष्टः ।। ७० सचित्तविरतः दयाचित्तो जिनवाक्यवेदी न बल्भते किञ्चन यः सचित्तम् । अनन्यसाधारणधर्मपोषी सचित्तमोची स कषायमोची ।। ७१ दिवाब्रह्मचारी निषेवते यो दिवसेन नारीमुद्दामकन्दर्पमदापहारी। कटाक्षविक्षेपशरैरविद्धो बुदिवाब्रह्मचरः स बुद्धः ।। ७२ ब्रह्मचारी यो मन्यमानो गुणरत्नचोरी विरक्तचित्तस्त्रिविधेन नारीम् । पवित्रचारित्रपदानुसारी स ब्रह्मचारी विषयापहारी॥७३ आरम्भविरतः विलोक्य षड्जीवविघातमुच्चरारम्भमत्यस्यति यो विवेकी। आरम्भमुक्तः स मतो मुनीन्द्ररागिक: संयमवृक्षसेकी ।। ७४ समस्त कषायरूप दोषोंसे मुक्त हैं, ऐसा जो पुरुष त्रिकाल सामायिक करता है, वह यथार्थ सामायिकमें स्थित कहा गया है ।।६९।। ४. प्रोषधोपवासी श्रावक जो पुरुष इन्द्रिय-सुखोंकी अभिलाषाको मन्द करके प्रत्येक मासकी चारों ही पर्वो में अन्य सर्व कार्य छोडकर सदा उपवास करता हैं, वह शुद्ध बुद्धि वालोंका अभीष्ट प्रोषधोपवास प्रतिमाधारी श्रावक हैं ।।७०॥ ५. सचित्तविरत श्रावक जिन वचनोंका वेत्ता जो दयालु चित्त पुरुष किसी भी सचित्त वस्तुको नहीं खाता है, वह अनन्य साधारण धर्मका पोषक एवं कषायोंका विमोचक सचित्तत्याग प्रतिमाधारी है।।७१।। ६. दिवाब्रह्मचारी श्रावक अत्यन्त उग्र कामदेबके मदको दूर करने वाला, स्त्रियोंके कटाक्ष विक्षेपरूप बाणोंसे नहीं वेधा गया जो पुरुष दिनमें स्त्रीका सेवन नहीं करता है, उसे ज्ञानियोंने प्रबद्ध दिवाब्रह्मचारी श्रावक कहा हैं !।७२।। ७. अहर्निश ब्रह्मचारी श्रावक __ जो विषय-सेवनसे विरक्त चित्त पुरुष स्त्रीको गुणरूप रत्नोंकी चुराने वाली मानता हआ मन वचन कायसे उसका सेवन नहीं करता हैं, वह पवित्र चारित्र पदका अनुसरण करने वाला और विषयोंका अपहारक ब्रह्मचारी कहा गया हैं ।।७३।। ८. आरम्भविरत श्रावक जो विवेकी पुरुष आरम्भको षट्कायिक जीवोंका विघातक देखकर कृषि व्यापारादि आरम्भ करनेका त्याग करता हैं, वह विरागी संयमरूप वृक्षका सींचने वाला आरम्भ त्यागी श्रावक मुनिराजोंके द्वारा माना गया है ।।७४।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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