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________________ १४८ श्रावकाचार-संग्रह परीषहवतोद्विग्नमजातागमसङ्गमम् । स्थापयेद् भ्रस्यदात्मानं समयी समयस्थितम् ।। १८५ तपस: प्रत्यवस्यन्तं यो न रक्षति संयतम् । नूनं स दर्शनाद्वाह्यः समयस्थितिलङ्घनात् ।। १८६ नवैः संदिग्धनिर्वाहविदध्याद गणवर्धनम् । एकदोषकृते त्याज्यः प्राप्ततत्त्वः कथं नरः ।। १८७ यत: समयकार्यार्थो नानापञ्चजनाश्रयः । अतः संबोध्य यो यत्र योग्यस्तं तत्र योजयेत् ॥ १८८ उपेक्षायां तु जायेत तत्त्वाद् दूरतरो नरः । ततस्तस्य भवो दीर्घः समस्योऽपि च हीयते ।। १८९ विशुद्धमनसां पुंसां परिच्छेदपरात्मनाम् । किं कुर्वन्ति कृता विघ्नाः सदाचार खिलैः खलः ।।१९० सुदतीसंगमासक्तं पुष्पदन्तं तपस्विनम् । वारिषेणः कृतत्राणः स्थापयामास संयमे ।। १९१ चैत्यैश्चैत्यालयनिस्तपोभिविविधात्मकैः । पूजामहाध्वजाद्यैश्च कुर्यान्मार्गप्रभावनम् ।। १९२ ज्ञाने तपसि पूजाया यतीनां यस्त्वसूयते । स्वर्गापवर्गमूर्लक्ष्मीननं तस्याप्यसूयते ।। १९३ समर्थश्चित्तवित्ताभ्यामिहाशासनभासकः । समर्थश्चित्तवित्ताभ्यां स्वस्यामुत्र न भासकः । १९४ तदानज्ञानविज्ञानमहामहोत्सबैः । दर्शनद्योतनं कुर्यावहिकापेक्षयोज्झितः ।। १९५ अन्तःसारशरीरेषु हितार्यवाहितेहितम् । किन स्यादग्निसंयोगः स्वणत्वाय तदश्मनि ।। १९६ को कहते हैं-) परीषह और व्रतसे घबराया हुआ तथा आगमके ज्ञानसे शून्य कोई साधर्मी भाई यदि धर्मसे भ्रष्ट होता हो तो सम्यग्दृष्टिको उसका स्थितिकरण करना चाहिए ! जो तपसे भ्रष्ट होते हुए मुनिकी रक्षा नहीं करता हैं, आगमकी मर्यादाका उल्लंघन करनेके कारण वह मनुष्य नियमसे सम्यग्दर्शनसे रहित हैं ।।१८५-१८६।। जिनके निर्वाहमें सन्देह है ऐसे नये मनुष्योंसे भी संघको बढाना चाहिए । केवल एक दोषके कारण तत्त्वज्ञ मनुष्यको छोडा नहीं जा सकता। क्योंकि धर्मका काम अनेक मनुष्योंके आश्रयसे चलता हैं। इसलिए समझा-बुझाकर जो जिसके योग्य हो उसे उसमें लगा देना चाहिए । उपेक्षा करनेसे मनुष्य धर्मसे दूर होता जाता हैं और ऐसा होनेसे उस मनुष्यका संसार सुदीर्घ होता हैं और धर्मकी भी हानि होती हैं ।। १८७-१८९।। 'सदाचारको बिगाडनेवाले दुष्ट मनुष्योंके द्वारा किये गये विध्न,विचारमें तत्पर विशुद्धमनवाले मनुष्योंका क्या कर सकते ? अर्थात् कुछ भी बिगाड नहीं कर सकते ।।१९०। 'वारिषेणने सुदतीमें आसक्त तपस्वी पृप्पदन्तकी रक्षा की और उसे संयममें लगाया ।। १९१ ।। (अब प्रभावना अंगको बतलाते हैं-) जिनबिम्ब और जिनालयोंकी स्थापनाके द्वारा,ज्ञानके द्वारा, तपके द्वारा तथा अनेक प्रकारकी महाध्वज आदि पूजाओंके द्वारा जैनधर्मकी प्रभावना करना चाहिये ॥१९२॥ जो मुनियोंके ज्ञान,तप और पूजाकी निन्दा करता है, उनमें झूठा दोष लगाता है, स्वर्ग और मोक्ष लक्ष्मी भी नियमसे उससे द्वेष करती हैं । अर्थात् उसे न स्वर्गके सुखोंकी प्राप्ति होती हैं, और न मोक्ष ही मिलता हैं ।।१९३।। इस लोकसे बुद्धि और धनमें समर्थ होनेपर भी जो जिनशासनकी प्रभावना नहीं करता,वह बुद्धि और धनसे समर्थ होनेपर भी परलोकमें अपना कल्याण नहीं करता। अतः ऐहिक सुखकी इच्छा न करके दान, ज्ञान, विज्ञान और महापूजा आदि महोत्सवोंके द्वारा सम्यग्दर्शनका प्रकाश करना चाहिए ।।१९४-१९५।। 'जिनके अन्तरंगमें कुछ सार हैं उनका अहित चाहना भी हितके लिए होता हैं । देखो, स्वर्णपाषाणको आगमें तपानेसे क्या वह सोना नहीं हो जाता ॥ १९६ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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