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________________ यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन पुण्यं वा पापं वा यत्काले जन्तुना पुराचरितम् । तत्तत्समये तस्य हि सुखं च दुःखं च योजयति॥१९७ विलाया महादेव्याः पूतिकस्य महीभुजः । स्यन्दनं भ्रमयामास मुनिर्वज्रकुमारकः ।। १९८ अथित्वं भक्तिसंपत्तिः प्रियोक्तिः सत्क्रियाविधिः । सधर्मसु च सौचित्यकृतिर्वत्सलता मता ।। १९९ स्वाध्याये संयमे सङ्घ सब्रह्मचारिणि । यथोचित्यं कृतात्मानो विनयं प्राहुरादरम् ॥ २०० आधिव्याधिनिरुद्धस्य निरवद्येन कर्मणा । सौचित्यकरण प्रोक्तं वैयायत्य बिमक्तये ।। २०१ जिने जिनागमे सूरी तप:श्रुतपरायणे । सद्भावशुद्धिसंपन्नोऽनुरागो भक्तिरुच्यते ।। २०२ चातुर्वर्ण्यस्य संघस्य यथायोग्यं प्रमोदवान् । वात्सल्यं यस्तु नो कुर्यात्स भवेत्समयी कथम् ।। २०३ तद्वतैविद्यया वित्त: शाहीरैः श्रीमदाश्रयः । त्रिविधातङ्कसंप्राप्तानुपकुर्वन्तु संयतान् ।। २०४ सन्न संश्च समावेव यदि चितं मलीमसम् । यात्यक्षान्तेः क्षयं पूर्वः परश्चाशुभचेष्टितात् ॥२०५ स्वमेव हन्तुमीहेत दुर्जन: सज्जनं द्विषन् । योऽधितिष्ठेत्तुलामेक: किमसो न व्रजेदधः ॥ २०६ महापद्मसुतो विष्णर्मुनीनां हास्तिने पुरे । बलिद्धिजकृतं विघ्नं शमयामास वत्सलः ।। २०७ निसर्गोऽधिगमो वापि तदप्तौ कारणद्वयम् । सम्यक्त्वभाक्पुमान्यस्मादल्पानल्पप्रयासत: ॥ २०८ आसन्नभव्यताकर्महानिसंज्ञित्वशुद्धपरिणामाः । सम्यक्त्वहेतुरन्तर्बाह्मोऽप्युपदेशकादिश्च ॥ २०९ जीवने पूर्वजन्ममें जो पुण्य या पाप किया है,समय आनेपर वह उसे अवश्य सुख या दुःख देता है' ॥१५७ । वज्रकुमार मुनिने राजा पूतिककी रानी महादेवी ऊविलाके रथका विहार कराया ॥१९८।। (अब वात्सल्य अंगको कहते है-)धर्मात्मा पुरुषोंके प्रति उदार होना,उनकी भक्ति करना, मिष्ट वचन बोलना, आदर-सत्कार तथा अन्य उचित क्रियाएँ करना वात्सल्य हैं ।। १९९।। स्वाध्याय, संयम, संघ,गुरु और सहाध्यायीका यथायोग्य आदर-सत्कार करनेको कृती पुरुष विनय कहते हैं । २००॥ जो मानसिक या शारीरिक पीडासे पीडित हैं, निर्दोष विधिसे उनकी सेवा-शुश्रुषा करना वैयावृत्य कहा जाता हैं । यह वैयावृत्य मुक्तिका कारण है ।।२०१॥ जिन भगवान्म, जिन-भगवान्के द्वारा कहे हए शास्त्रम, आचार्य में और तप और स्वाध्याय में लीन मनि आदिमें विशद्ध भावपूर्वक जो अनुराग होता हैं उसे भक्ति कहते है ।।२०२।। जो हर्षित होकर चार प्रकारके संघ में यथायोग्य वात्सल्य नहीं करता वह धर्मात्मा कैसे हो सकता है ॥२०३।। इसलिए व्रतोंके द्वारा, विद्याके द्वारा,धनके द्वारा,शरीरके द्वारा और सम्पन्न साधनों के द्वारा शारीरिक मानसिक और आगन्तुक रोगोंसे पीडित संयमीजनोंका उपकार करना चाहिए । २०४।।- 'यदि चित्त मलीन है तो सज्जन और दुर्जन दोनों समान हैं। उनमेंसे सज्जन तो अशान्तिके कारण नष्ट हो जाता है और दुर्जन बुरे कार्योके करनेसे नष्ट हो जाता हैं । क्योंकि सज्जनसे द्वेष करनेवाला दुर्जन स्वयं अपने ही घातकी चेष्टा करता है । ठीक ही हैं जो अकेला ही तराजूमें बैठ जाता है वह नीचे क्यों नहीं जायेगा ।।२०५-२०६।। _ 'महापद्म राजाके पुत्र धर्मप्रेमी विष्णुमुनिने हस्तिनागपुरमें बलिके द्वारा मुनियोंपर किया गया उपसर्ग दूर किया' । २०७।। सम्यग्दर्शन दो प्रकारसे होता हैं-एक तो परोपदेशके बिना स्वयं ही हो जाता है और दूसरे,परोपदेशसे होता हैं । क्योंकि किसी पुरुषको तो थोडा-सा प्रयत्न करनेसे ही सम्यक्त्वकी प्राप्ति हो जाती है और किसीको बहुत प्रयत्न करनेसे सम्यक्त्वकी प्राप्ति होती हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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