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________________ १५० श्रावकाचार-संग्रह एतदुक्तं भवति- कस्यचिदासन्नभव्यस्य तनिदानद्रव्यक्षेत्रकालभावभवसंपत्सेव्यस्य विधूततत्प्रतिबन्धकारसम्बन्धस्याक्षिप्तशिक्षाक्रियालापनिपुणकरणानुबन्धस्य नवस्य भाजनस्येवासंजातदुर्वासनागन्धस्य झटिति यथावस्थितवस्तुस्वरूपसंक्रान्तिहेतुतया स्फाटिकमणिदर्पणसगन्धस्य पूर्वभवसंभालनेन वा वेदनानुभवनेन वा धर्मश्रवणाकर्णनेन वाहत्प्रतिनिधिनिध्यानेन वा महामहोत्सवनिहालनेन वा महद्धिप्राप्ताचार्यवाहनेन व नृषु नाकिषु वा तन्माहात्म्य पंभूतविभवसंभावनेन वान्येन वा केनचित्कारणमात्रेण विचारकान्तारेषु मनोविहारास्पदं खेदमनापद्य यदा जीवादिषु पदार्थेषु याथात्म्यसमवधानं श्रद्धान भवति तदा प्रयोक्तः सुकरक्रियत्वाल्लयन्ते शालयः स्वयमेव, विनीयन्ते कुशलाशयाः स्वयमेव,इत्यादिवत्तन्निसर्गात्पजातमित्युच्यते । यदा त्वव्युत्पत्तिसंशोतिविपर्यस्तिसमधिकबोधस्याधिमुक्तियुक्तिसूक्तिसम्बन्धसविधस्यप्रमाणनयनिक्षेपानयोगोपयोगावगाोष समस्तेष्वतिह्येषु परीक्षोपक्षेपादतिक्लिश्य निःशेषदुराशाविनिशाविनाशनांशुमरीचिश्चिरेण तत्त्वेषु रुचिः संजायत, तदा विधातुरायासहेतुत्वान्मया निर्मापितोऽयं सूत्रानुसारो हारो, मयेदं संपादितं रत्नरचनाधिकरणमाभरणमित्यादिवत्तदधिगमादावितमित्युच्यते । उक्तं चअद्धिपूर्वापेक्षायामिष्टनिष्टं स्वदेवतः । बुद्धिपूर्वव्यपेक्षायामिष्टानिष्टं स्वपौरुषात् ॥ २१० द्विविधं त्रिविधं वशविधमाहुः सम्यक्त्वमात्महितमतयः । तत्त्वश्रद्धानविधि: सर्वत्र च तत्र समवृत्तिः ।। २११ ॥२०८।। 'सम्यक्त्वके अन्तरंग कारण निकट भव्यता, ज्ञानावरणादिक कर्मोकी हानि, संज्ञोपना और शद्ध परिणाम है ; तथा बाह्य कारण उपदेश आदिक है' ।।२०९।। आशय यह है कि जो कोई निकट भव्य हैं, सम्यग्दर्शनके योग्य द्रव्य क्षेत्र, काल, भाव और भवरूपी सम्पत्तिकी जिसे प्राप्ति हो गई है, उसमें किसी तरहकी रुकावट डालने वाला कोई प्रतिबन्धक नहीं रहा हैं, शिक्षा, क्रिया, बात. चीतको ग्रहण करने में निपुण पाँचों इन्द्रियों और मनसे जो युक्त हैं अर्थात् संज्ञी पंचेन्द्रिय है, नरे बरतनकी तरह जिनमें दुर्वासनाकी गन्ध नहीं है, वस्तुका जैसा स्वरूप हैं वैसा ही स्वरूप दर्शानेके लिए जो स्फटिक मणिके दर्पणके समान स्वच्छ है, ऐसे जीवके पूर्वभवके स्मरणसे, कष्टोंके अनुभवसे,धर्मके श्रवणसे,जिनविम्बके दर्शनसे, महामहोत्सवोंके अवलोकनसे, ऋद्धिघारी आचार्योके दर्शन करनेसे,मनुष्यों तथा देवोंमें सम्यक्त्वके माहात्म्यसे उत्पन्न हुए विभवको देखनेसे या अन्य किसी कारणसे विचाररूपी वनमें मनको न भटका कर जब जीवादिक पदार्थोमें ज्यों-का-त्यों श्रद्धान होता हैं तो उस सम्यग्दर्शनको निसर्गज सम्यग्दर्शन कहते है। क्योंकि जैसे धान्य कृषक द्वारा सुलभतासे स्वयं ही कट जाते हैं अथवा सदाशयी स्वयं ही विनीत हो जाते है उसी तरह उसमें कर्ताको श्रम करना नहीं पडता । और जब संशय, विपर्यय और अनध्यवसायसे ग्रस्त ज्ञानवाले मनुष्यके श्रद्धा, युक्ति और आगमके निकट होकर, प्रमाण, नय, निक्षेप और अनुयोगके द्वारा अवगाहन करनेके योग्य समस्त शास्त्रोंकी परीक्षा करनेका कष्ट उठाकर चिरकालके पश्चात् समस्त दुराशारूपी रात्रिके विनाशके लिए सूर्यको किरणोंके समान तत्त्वरुचि उत्पन्न होती है, तो उसे अधिगमज सम्यग्दर्शन कहते है । क्योंकि जैसे मैने यह हार बनाया है या मैने यह रत्नखचित आभरण बनाया हैं,वैसे ही कर्ताके द्वारा विहित परिश्रमसे उत्पन्न हुए अधिगम-ज्ञानसे वह प्रकट होता है । कहा भी हें-अब द्धिपूर्वक प्रयत्नके बिना अचानक जो इष्ट या अनिष्ट होता हैं वह अपने दैवसे होता है और बुद्धिपूर्वक प्रयत्न करनेसे जो इष्ट या अनिष्ट होता हैं वह अपने पौरुषसे होता है ॥२१०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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