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________________ यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन १५१ सरागवीतरागात्मविषयत्वाद्विधा स्मृतम् । प्रशमादिगणं पूर्व परं चात्मविशुद्धिभाक् ॥ २१२ । यथा हि पुरुषस्य पुरुषशक्तिरियमतीन्द्रियाप्यङ्गनाजनाङ्गसंभोगेनापत्योत्पादनेन च विपदि धैर्यावलम्बनेन वा प्रारदध्वस्तुनिर्वहणेन वा निश्चेतुं शक्यते, तथात्मस्वभावतयातिसूक्ष्मयत्नमपि सम्यक्त्वरत्न प्रशमसंवेगानकम्पास्तिक्यैरेव वाक्यैराकलयितुं शक्यम् । तत्रयद्रागादिषु दोषेषु चित्तवृत्तिनिबर्हणम् । तं प्राहुः प्रशमं प्राज्ञाः समस्तव्रतभूषणम् ।। २१३ शारीरमानसागन्तुवेदनाप्रभवाद्भवात् । स्वप्नेन्द्रजालसंङ्कल्पाद्भीति: संवेग उच्यते ।। २१४ सत्त्वे सर्वत्र चित्तस्य दय त्वं दयालबः । धर्मस्य परमं मूलमनुकम्पां प्रचक्षते ।। २१५ आप्ते श्रुते व्रते तत्त्वे चित्तमस्तित्वसंस्तुतम् । आस्तिक्यमास्तिकैरुक्तं मुक्तियुक्तिधरे नरे।। २१६ रागरोषधरे नित्यं निवते निर्दयात्मनि । संसारो दीवंसारः स्यानरे नास्तिकनीतिके ।। २१७ कर्मणा क्षयतः शान्तः क्षयोपशमतस्तथा । श्रद्धानं त्रिविधं बोध्यं गतौ सर्वत्र जन्तुषु ॥ २१८ दशविधं तदाहआत्महितैषी महापुरुषोंने सम्यग्दर्शनके दो,तीन और दश भेद बतलाये है। इन सभी भेदोंमें तत्त्वोंका श्रद्धान समान रूपसे पाया जाता हैं । अर्थात् तत्त्वोंका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शनका सामान्य लक्षण हैं। अत: सम्यग्दर्शनके जितने भी भेद हैं उन सभीमें तत्त्वोंका श्रद्धान होना आवश्यक हैं उसके बिना सम्यग्दर्शन हो ही नहीं सकता॥२११।। सम्यग्दर्शन रागी आत्माओंको भी हो सकता है और वीतरागी आत्माओंके भी होता हैं इसलिए उसके दो भेद कर दिये गये हैं-एक सरागसम्यग्दर्शन और दूसरा वीतरागसम्यग्दर्शन । सरागसम्यग्दर्शन प्रशम आदि गुणरूप होता है और वीतरागसम्यग्दर्शन आत्मविशुद्धिरूप होता हैं ।।२१२॥ जैसे पुरुषकी शक्ति यद्यपि अतीन्द्रिय है, इन्द्रियोंसे उसे नहीं देखा जा सकता,फिर भी स्त्रियोंके साथ संभोग करनेसे,सन्तानोत्पादनसे, विपत्तिमें धैर्य और प्रारम्भ किये गये कार्यको समाप्त करना आदि तातोंसे उसकी शक्तिका निश्चय किया जाता है,जैसे ही सम्यक्त्वरूपी रत्न भी आत्माका स्वभाव होने के कारण यद्यपि बहुत सूक्ष्म हैं, फिर भी प्रशम संवेग,अनुकम्पा और आस्तिक्य आदिके द्वारा उसका निश्चय किया जा सकता है। (अब आस्तिक्य आदिका स्वरूप बतलाते है-) रागादिक दोषोंसे चित्तवृत्तिके हटनेको पण्डित-जन प्रशम कहते हैं । यह प्रशमगुण समस्त व्रतोंका भूषण हैं ॥२१३।। यह संसार शारीरिक, मानसिक, और आगन्तुक कष्टोंसे भरा है और स्वप्न या जादूगरके तमाशेकी तरह चञ्चल है। इससे डरना संवेग हैं ।।२१४।। सब प्राणियों के प्रति चित्तका दयालु होना अनुकम्पा हैं । दयालु पुरुष इसे धर्मका परम मूल बतलाते है ।।२१५'। मुक्तिके लिए प्रयन्नशील पुरुषका चित्त आप्तके विषयमें, शास्त्रके विषयमें, व्रतके विषय में और तत्त्वके विषयमें ये हैं' इस प्रकारकी भावनासे युक्त होता हैं उसे आस्तिक पूरुष आस्तिक्य कहते है । जो मनुष्य रागी और द्वेषी हैं, कभी व्रताचरण नहीं करता और न कभी उसकी आत्मामें दयाका भाव हो होता है उस नास्तिक धर्मवालेका संसार. भ्रमण बढता ही है ।।२५६-२.७।। सम्यग्दर्शनके तीन भेद भी है-औपश मिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक । जो सम्यग्दर्शन मिथ्यात्व, सम्यमिथ्यात्व, सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया लोभ इन सात प्रकृतियोंके उपशमसे होता हैं उसे औपशमिक सम्यक्त्व कहते है । जो इन सात प्रकृतियोंके क्षयसे होता है उसे क्षायिक सम्यक्त्व कहते है । और जो इनके क्षयोपशमसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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