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________________ १५२ श्रावकाचार-संग्रह आज्ञामार्गसमुद्भवमुपदेशात्सूत्रबीजसंक्षेपात् । विस्तारार्थाम्यां भवमवपरमावादिगाढं च ॥ २१९ __ अस्यायमर्थः- भगवदर्हत्सर्वज्ञप्रणीतागमानुज्ञासंज्ञा आज्ञा, रत्नत्रयविचारसर्गो मार्गः, पुराणपुरुषचरितश्रवणाभिनिवेश उपदेश:, यतिजनाचरणनिरूपणपात्रं सूत्रम्, सकलसमयदलसूचनाव्याज बीजम्, आप्तश्रुतवतपदार्थसमासालापाक्षेपः संक्षेपः, द्वादशाङ्गचतुर्दशपूर्वप्रकीर्णविस्तीर्णश्रुतार्थसमर्थनप्रस्तारो विस्तारः,प्रवचनविषये स्वप्रत्ययसमर्थोऽर्थः, विविधस्यागमस्य निःशेषतोऽ न्यतमदेशावगाहालीढमवगाढम्,अवधिमनःपर्ययकेवलाधिकपुरुषप्रत्ययप्ररूढं परमावगाढम् । गृहस्थो वा यतिर्वापि सम्यक्त्वस्य समाश्रयः । एकादशविधः पूर्वश्चरमश्च चतुर्विधः ।। २२० मायानिदानमिथ्यात्वशल्यत्रितयमुद्धरेत् । आर्जवाकाङ्क्षणाभावतत्त्वभावनकोलकैः ।। २२१ दृष्टिहीनः पुमानेति न यथा पदमीप्सितम् । दृष्टिहीनः पुमानेति न तथा पदमीप्सितम् ।। २२२ सम्यक्त्वं नाङ्गहीनं स्याद्राज्यवत्प्राज्यभूतये । ततस्तदङ्गसंगत्यामङ्गी नि:संगमीहताम् ॥ २२३ होता है उसे क्षायोपशमिक कहते हैं। ये तीनों सम्यग्दर्शन सब गतियोंमें पाये जाते है ॥२१८॥ (अब सम्यक्त्वके दश भेद बतलाते हैं-) आज्ञासम्यक्त्व, मार्गसम्यक्त्व, उपदेशसम्यक्त्व, सूत्रसम्यक्त्व, बीजसम्यक्त्व, संक्षेपसम्यक्त्व, विस्तारसम्यक्त्व, अर्थसम्यक्त्व, अवगाढसम्यक्त्व और परमावगाढसम्यक्त्व ये सम्यक्त्बके दश भेद हे ॥२१९।। इनका स्वरूप इस प्रकार है भगवान् सर्वज्ञ अर्हन्तदेवके द्वारा उपदिष्ट आगमकी आज्ञाको ही प्रमाण मानकर जो श्रद्धान किया जाता है उसे आज्ञासम्यक्त्व कहते हैं। रत्नत्रय रूप मोक्षके मार्गका कथन सुनकर जो श्रद्धान हो उसे मार्गसम्यक्त्व कहते हैं । तोर्थङ्कर बलदेव आदि पुराणपुरुषोंके चरितको सुनकर जो श्रद्धान होता है उसे उपदेशसम्यक्त्व कहते है । मुनिजनोंके आचारका कथन करनेवाले आचाराङगसूत्रको सुनकर जो श्रद्धान होता हैं उसे सूत्रसम्यक्त्व कहते है। जिस पदमें सूचन रूपसे समस्त शास्त्रोंके अंश छिपे होते, है उसे बीज कहते हैं। बीज पदको समझकर सूक्ष्स तत्त्वोंके ज्ञानपूर्वक जो श्रद्धान होता है,उसे बीजसम्यक्त्व कहते हैं । संक्षेपसे आप्त, श्रुत, ब्रत और पदार्थोको जानकर उनपर जो श्रद्धान होता हैं उसे संक्षेपसम्यक्त्व कहते है । बारह अंगों,चौदह पूर्वो और अङगबाह्योंके द्वारा विस्तारसे तत्त्वार्थको सुनकर जो श्रद्धान होता है उसे विस्तारसम्यक्त्व कहते है । प्रवचनके वचनोंकी सहायताके बिना किसी अन्य प्रकारसे जो अर्थका बोध होकर श्रद्धान होता है उसे अर्थसम्यक्त्व कहते हैं। अङग,पूर्व और प्रकीर्णक आगमोंके किसी एक देशका पूरी तरहसे अवगाहन करनेपर जो श्रद्धान होता है उसे अवगाढसम्यक्त्व कहते है । और अवधिज्ञान, मनःपययज्ञान, तथा केवलज्ञानके द्वारा जीवादि पदार्थो को जानकर जो प्रगाढ श्रद्धान होता है उसे परमावगाढसम्यक्त्व कहते हैं। गृहस्थ हो या मुनि हो, सम्यग्दृष्टि अवश्य होना चाहिए । अर्थात् सम्यक्त्वके बिना न कोई श्रावक कहला सकता हैं और न कोई मुनि कहला सकता है। गृहस्थके ग्यारह प्रतिमारूप ग्यारह भेद है और मुनिके ऋषि, यति, मुनि और अनागर ये चार भेद है।।२२०॥ सरलता रूपी कीलके द्वारा माया रूपी काँटेको निकालना चाहिए । इच्छाका अभाव रूपी कीलके द्वारा निदानरूपी काँटेको निकालना चाहिए और तत्त्वोंकी भावना रूपी कीलके द्वारा मिथ्यात्व रूपी काँटेको निकालना चाहिए ।२२१॥ जैसे दृष्टि अर्थात् आँखोंसे हीन पुरुष अपने इच्छित स्थान तक नहीं पहुँच सकता। वैसे ही दृष्टि अर्थात् सम्यग्दर्शनसे हीन पुरुष मुक्तिलाभ नहीं सकता ॥२२२॥ जैसे राज्यके अंग मन्त्री सेनापति आदिके बिना राज्य समृद्धिशाली नहीं हो सकता,वैसे ही निःशङ्कित आदि अंगोंके बिना सम्यग्दर्शन भी उत्कृष्ट आभ्यन्तर और बाह्य विभूतिको नहीं दे सकता। इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org :
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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