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________________ यशस्तिलकचम्पूगत - उपासकाध्ययन भीमभस्मजटावोयोग दृकटासनम् । मेखलाप्रोक्षणं मुद्रा वृषीदण्डः करण्डकः ।। १७१ शौचं मज्जतमाचामः पितृपूजानलाचनम् । अन्तस्तत्त्व विहीनानां प्रक्रियेयं विराजते ।। १७२ को देवः किमिद ज्ञानं किं तत्त्वं कस्तपःक्रमः । को बन्धः कश्च मोक्षो वा यत्तत्रेदं न विद्यते ।। १७३ विशुद्ध क्रिया शुद्धापि देहिषु । नाभिजातफल प्राप्त्यै विजातिष्विव जायते ।। १७४ तत्संस्तवं प्रशंसां वा न कुर्वीत कुदृष्टिषु । ज्ञानविज्ञानयोस्तेषां विपश्चिन्न च विभ्रमेत् ।। १७५ जले तैलमिवैतिह्य वृथा तत्र बहिर्द्युति । रसवत्स्यान्न यत्रान्तर्बोधो वेधाय धातुषु ।। १७६ आत्मनि मोक्षे ज्ञाने वृत्ते ताते व भरतराजस्य । ब्रह्मेति गीः प्रगीता न चापरो विद्यते ब्रह्मा ।। १७७ कादम्बताक्ष्यगोसिंहपीठाधिपतिषु स्वयम् । आगतेष्वप्यभून्नंषा रेवती मूढतावती ॥ १७८ उपगूहस्थितीकारी यथाशक्तिप्रभावनम् वात्सल्यं च भवन्त्येते गुणाः सम्यक्त्वसंपदे ।। १७९ क्षान्त्या सत्येन शौचेन मार्दवेनार्जवेन च तपोभिः संयमैदनः कुर्यात्समय बृंहणम् ।। १८० सवित्रीव तनूजानामपराधं सधर्मसु । दैवप्रमादसंपन्नं निगूहेद् गुणसंपदा ।। १८१ अशक्तस्यापराधेन किं धर्मो मलिनो भवेत् । न हि भेके मृते याति पयोधिः पूतिगन्धिताम् ।। १८२ दोषं गूहति नो जातं यस्तु धर्मं न बृंहयेत् । दुष्करं तत्र सम्यक्त्वं जिनागमबहिस्थिते || १८३ मायासंयमिन्युत्सर्पे सूर्वे रत्नापहारिणि । दोषं निषूदयामास जिनेन्द्रो भक्तवाकरः ।। १८४ मोक्षकी विधियाँ है, उनमें भी उक्त वस्तुओं के सेवनका विधान आता हैं ।। १७० ।। नशा करना, भस्म रमाना, जटाजूट रखना, योगपट्ट, कटिसूत्र धारण, यज्ञके लिए पशुवध करना, मुद्रा, कुशासन, दण्ड, पुष्प रखनेका पात्र, शौच, स्नान, आचमन, पितृतर्पण और अग्निपूजा, सब आत्मतत्त्वसे विमुख साधकों की प्रक्रिया हैं। कौन देव है ? तत्त्व क्या हैं, तपस्याका क्रम क्या है ? बन्ध किसे कहते हैं? मोक्षका क्या स्वरूप हैं? ये सब बातें वहाँ नहीं हैं ।। १७१-१७३॥ । यदि देव और शास्त्र निर्दोष न हों तो प्राणियोंकी शुद्ध क्रिया भी श्रेष्ठ फल को नहीं दे सकती। जैसे विजातियों में कुलीन सन्तानकी प्राप्ति नहीं होती। इसलिए मिध्यादृष्टियोकी मनसे प्रशंसा नहीं करनी चाहिए और नवचन से स्तुति करनी चाहिए। तथा समझकर मनुष्यों को उनके ज्ञानादिकको देखकर भ्रम में नहीं पडना चाहिए ।। १. ४-१७५।। जहाँ धातुमें पारदकी तरह अन्तर्बोध चित्तके अन्दर नहीं भिदता, वहाँ जल में तेल की तरह बाहर में ही प्रकाशमान शास्त्रज्ञान व्यर्थ ही होता हैं । १७६ ।। आत्माको, मोक्षको, ज्ञानको, चारित्रको और भरत के पिता ऋषभदेवको ब्रह्मा कहते हैं । इनके सिवा और कोई ब्रह्मा नहीं हैं । १७७।।‘ब्रह्मा, विष्णु, शिव और जिनके स्वयं पधारने पर भी रेवती रानी मूर्ख नहीं बनी, मूढताको प्राप्त नहीं हुई ।।१७८ || ( अब उपगूहन अंगको बतलाते हैं - ) उपगूहन, स्थितिकरण, शक्ति के अनुसार प्रभावना और वात्सल्य ये गुण सम्यक्त्व रूपी सम्पदा के लिए होते हैं ।। १७९ ॥ क्षमा, सत्य, शौच, मार्दव, आर्जव, तप, संयम और दानके द्वारा धर्मकी वृद्धि करनी चाहिए। तथा जैसे माता अपने पुत्रों के अपराधको छिपाती हैं वैसे ही यदि साधर्मियोंमेंसे किसीसे दैववश या प्रमाद वश कोई अपराध बन गया हो तो उसे गुण सम्पदा से छिपाना चाहिए | क्या असमर्थ मनुष्य के द्वारा की गई गल्ती धर्म मलिन हो सकता हैं? मेढकके मर जानेसे समुद्र दुर्गन्धित नहीं हो जाता !! जो न तो दोषको ढाँकता है और न धर्मकी वृद्धि करता है, वह जिनागमका पालक नहीं हैं और उसे सम्यक्त्वकी प्राप्ति होना भी दुष्कर है ।। १८०-१८३ ॥ 'मायाके नियंत्रण में प्रवीण रत्नको चुरानेवाले सूर्पके दोषको जिनेन्द्र भक्त सेठने छिपाया ॥ १८४ ॥ ( अब स्थितिकरण अंग Jain Education International १४७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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