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________________ यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन अहो धर्माराधनकमते वसुमतीपते, सम्यक्त्वं हि नाम नराणां महती खलु पुरुषदेवता । 'यत्सकृदेकमेव यथोक्तगणप्रगुणतया संजातमशेषकल्मषकलुषधिषणतया नरकादिषु गतिषु, पुष्य. दायुषामपि मनुष्याणां षट् सुतलपातालेषु,अष्टविधेषु व्यन्तरेष,दशविधेषु भवनवासिषु पञ्चविधेष ज्योतिष्केष, त्रिविधासु स्त्रीषु, विकलकर णेषु पृथ्वी-पय -पावक-पवनकायिकेषु वनस्पतिषु च न भवति संभूतिहेतुः । सावधि विदधात्याजवंजवीमावं, नियमेन संपादयति कञ्चित्कालमुपलभ्यात्मनश्चा:चारित्रे, साधु संपादनसार: संस्कार इव बीजेषु जन्मान्तरेऽपि न जहात्यात्मनोऽनुवृत्तिम्, सिद्धश्चिन्तामणिरिव च फलत्यसीम कामितानि । व्रतानि पुनरोषधय इव फलपाकावसानानि पाथेयवन्नियतवृत्तीनि च । न च सिद्ध र सवेधसंबन्धादुषर्बुधसंनिधानमात्रजन्मनि जाम्बुनद इवात्र पदार्थयाथात्म्यसमवगमान्मनोमननमात्रतन्त्रे निःशेष अतश्रवणपरिश्रमः समाश्रयणीयः, न शरीरमायासयितव्यम्, न देशान्तरमनुसरणीयम्, नापि कालक्षेपकुक्षिरपेक्षितव्यः । तस्मादधिष्ठानमिव प्रासादस्य, मौभाग्यमिव रूपसम्पदः, प्राणितमिव भोगायतनोपचारस्य, मूलबलमिव विजयप्राप्तेः, विनीतत्वमिवाभिजात्यस्य, नयानुष्ठानमिव राज्यस्थितेरखिलस्यापि परलोकोदाहरस्य सम्यक्त्वमेव ननु प्रथमं कारणं गृणन्ति गरीयांस: । तस्य चेदं लक्षणम्है कहीं जाता नहीं हैं, तो पुण्यात्माओंका स्वर्गगमन और पापात्माओंका नरक गमन भी नहीं होगा । फिर तो परलोक की कथा ही व्यर्थ हो जाती है । अतः मुक्तात्माको ऊर्ध्वगामी मानना चाहिए ।। ४५-४७ ।। (अब ग्रन्थकार सम्यक्त्वका महात्म्य और स्वरूप बतलाते है-) धर्मप्रेमी राजन्! सम्यक्त्व मनुष्योंकी एक महती पुरुष देवता है अर्थात् देवताकी तरह उनका रक्षक है । क्योंकि यदि अपने यथोक्त गुणोंसे समन्वित सम्यग्दर्शन एक बार भी प्राप्त हो जाता है तो समस्त पापोंसे कलुषित मति होने के कारण जिन पुरुषोंने नरकादिक गतियोमसे किसी एककी आयुका बन्ध कर लिया हैं उन मनुष्योंका नीचेके छह नरकोंमें, आठ प्रकारके व्यन्तरोंमें, दस प्रकारके भवनवासियों में, पाँच प्रकारके ज्योतिषी देवोंमें, तीन प्रकारकी स्त्रियोंमें, विकलेन्द्रियोंमें, पथिवीकाय, जलकाय, तैजसकाय, वायुकाय और वनस्पतिकायमें जन्म नहीं होने देता । संसारको सान्त कर देता हैं। कुछ समयके पश्चात् उस आत्माके सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र अवश्य प्रकट हो जाते है । जैसे,बीजोंमें अच्छी तरहसे किया गया संस्कार बीजोंकी वृक्षरूप पर्यायान्तर होनेपर भी वर्तमान रहता है,उसी तरह सम्यक्त्व जन्मान्तरमें भी आत्माका अनुसरण करता है, उसे छोडता नहीं है। सिद्ध चिन्तामणिके समान असीम मनोरथोंको पूर्ण करता है । व्रत तो औषधि वृक्षोंकी तरह (जो वृक्ष फलोंके पकने के बाद नष्ट हो जाते है उन्हें ओषधि वृक्ष कहते है ) मोक्षरूपी फलके पकने तक ही ठहरते है तथा कलेबाकी तरह नियत कालतक ही रहते हैं। (किन्तु सम्यक्त्व ऐसा नहीं है) पारे और अग्निके संयोगमात्रसे उत्पन्न होनेवाले स्वर्णकी तरह,पदार्थोके यथार्थ स्वरूपको जानकर उनमें मनको लगाने मात्रसे प्रकट होनेवाले सम्यक्त्वके लिए न तो समस्त श्रुतको सुननेका परिश्रम ही करना आवश्यक है, न शरीरको ही कष्ट देना चाहिए, न देशान्तरमें भटकना चाहिए और न कालकी ही अपेक्षा करनी चाहिए । अर्थात् सम्यक्त्वके लिए किसी कालविशेष या देश-विशेषकी आवश्यकता नहीं है । सब देशों और सब कालोंमें वह हो सकता है । इसलिए जैसे नीवको महलका,सौभाग्यको रूप-सम्पदाका, जीवनको शारीरिक सुखका, मूल बलको विजयका, विनम्रताको कुलीनताका,और नीति पालनको राज्यकी स्थिरताका मूलकारण माना जाता हैं वैसे ही महात्मा. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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