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________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार पडिब झिऊण सुत्तुटिओ व्व संखाइमहर सद्देहि । दळूण सुरविभूई विभिहियओ पलोएइ ।।४९८ कि सुमिणदंसमिणं ण वेत्ति जा चिठ्ठए वियप्पेण । अयंति तक्ख गं चिय थुइमुहला आयरक्खाई ॥४९९ जय जीव णद वड्ढाइचारुसद्देहि सोयरम्मेहि । अच्छरसयाउ वि तओ कुणंति चाडूणि विविहाणि ॥५०० एवं थुणिज्जमाणो' सहसा पाऊण ओहिणाणण । गंतूण हाणगेहं वुगणवाविम्हि व्हाऊण॥५०१ आहरणगिहम्हि तओ सोल सहाभूसणं च गहिऊण । पूजोवयरणसहिओ गंतूण जिणालए सहसा५०२ वरवज्जाविविहमंगलरवेहि गंधवखयाइदव्वेहिं । महिऊण जिणवरिदं थुत्तसहस्सेहि थुणिऊण।।५०३ गंतूण समागेहं अणेयसुरसंकुलं परम 'म्म । सिंहासणस उरि चिटुइ देवेहि थुव्वंतो ।।५०४ उस्सर्यासयायवत्तो सियचामरधुव्वमाणसव्वंगो । पवरच्छराहि कडइ दिव्यद्वगुणप्पहावेण ॥५०५ दोसु सायरेषु य सुरसरितीरे से नसिहरेस । अलियगमणागमणो देवुज्जाणाइस रमेइ।।५०६ आसाढ कात्तिए फग्गुणे य णंदीसरटुदिवसे यु। विविहं करेइ महिम गंदीसरचेइय"गिहे॥५०७ पंचसु मेरुसु तहः विमाणजिग चेइएस विविहस । पंचसु कल्लाणेसु य करेइ बहुवियप्पं ।।५०८ एवं नवयौवनसे युक्त हो जाता हैं । वह देव समचतुरस्र संस्थानका धारक, रसादि धातुओंसे रहित शरीरवाला, सहस्र सूर्यों के समान तेजस्वी, नवीन नीलकमलके समान सुगन्धि निःश्वासवाला होता हैं ४९४-४९७॥ _सोकर उठे हुए राजकुमारके समान वह देव शंख आदि बाजोंके मधुर शब्दोंसे जागकर देव-विभूतिको देखकर और आश्चर्यसे चक्तिहृदय होकर इधर उधर देखता हैं । क्या यह स्वप्न दर्शन है, अथवा नहीं या यह सब वास्तविक है, इस प्रकार विकल्प करता हुआ वह जब तक बैठता हैं कि उसी क्षण स्तुति करते हुए आत्मरक्षक आदि देव आकर, जय (विजयी हो), जीव (जीते रहो , नन्द (आनन्दको प्राप्त हो),वर्द्धस्व (वृद्धिका प्राप्त हो),इत्यादि श्रोत्र-सुखकर सुन्दर शब्दोंसे नाना चाटुकार करते हैं। तभी मैकडों अपराएँ भो आकर उनका अनुकरण करती है ।।४९८-५००। इस प्रकार देव और देवांगनाओंसे स्तुति किया गया वह देव सहसा उत्पन्न हुए अवधिज्ञानसे अपना सब वृत्तान्त जानकर, स्नानगृहमें जाकर स्नान-वापिकाम स्नान कर तत्पश्चात आभरणगृह में जाकर सोलह प्रकारके आभूषण धारण कर पुनः पूजनके उपकरण लेकर सहसा या शीघ्र जिनालयमें जाकर उत्तम बाजोंसे, तथा विविध प्रकारके मांगलिक शब्दोंसे और गंध, अक्षत आदि द्रव्योंसे जिनेन्द्र भगवान्का पूजन कर, और सहस्रों स्तोत्रोंसे स्तुति करके तत्पश्चात् अनेक देवोंसे व्याप्त और परम रमणीक सभा-भवन में जाकर अनेक देवोंसे स्तुति किया जाता हआ,श्वेत छत्र को धारण करता हुआ और श्वेत चमरोंने कम्पमान या रोमांचित है सर्व अंग जिसका, ऐसा वह देव सिंहासनके ऊपर बैठता है । ( वहाँपर वह) उत्तम अप्सराओं के साथ क्रीडा करता है,और अणिमा,महिमा आदि दिव्य आठ गुणोंके प्रभावसे द्वीपों में, समुद्रोंमें, गंगा आदि नदियोंके तीरोंपर, शलोंके शिखरोंपर, तथा नन्दनवन आदि देवोद्य.नों में अस्खलित (प्रतिबन्ध-रहित) गमनागमन करता हुआ आनन्द करता है ॥५०१-५०६॥ वह देव आषाढ,कात्तिक और फाल्गुन मास में नन्दीश्वर पर्व के आठ दिनोंमें, नन्दीश्वर द्वीपके जिन चैत्यालयोंमें जाकर अनेक प्रकारकी पूजा महिमा १ झ. अच्छरसाह, ब. अच्छरसमओ । २ ध. विविहाणं । ३ प. प माणा | ४ इ. सरित्तीसु । ५१. घरेसु। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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