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________________ ४७६ श्रावकाचार-संग्रह जायइ णिविज्जदाणेण' सत्तिगो कंति-तेय-संपण्णो। लावण्णजलहिवेलातरंगसंपावियसरीरो॥४८६ दीवहिं दीवियासेसजीवदव्वाइतच्चसम्भावो । सम्भावणियकेवलपईवतेएण होइ गरो । ४८७ धूवेण सिसिरयरधवलकित्तिधलिजयत्तओ पुरिसो। जायइ फलेहि संपत्तपरमणिव्वाणसोवखफलो॥४८८ घंटाहि घंटसदाउलेसु पवरच्छराणमज्झम्मि । संकोडइ सुरसंघायसेविओ वरविमाणेसु ॥४८९ छत्तेहि एयछत्तं भुंजइ पुहवी सवत्तपरिहीणो' । चामरदाणण तहा विज्जिज्जइ चमरणिवहेहिं४९. अहिसेयफलेण णरो अहिसिचिज्जइ सुदंसणस्सुवरि । खीरोयजलेण सुरिदप्पमुहदेवेहि भत्तीए ।।४९१ विजयपडाएहि णरो संगाममुहे मु विजइओ होइ। छवखंडविजयणाहो णिप्पडिवक्खो जसस्सी य ॥४९२ कि जंपिएण बहुणा तीसु वि लोएस कि पि जं पोक्खं । पूजाफलेण सव्वं पाविज्जइ णस्थि संदेहो। अणुपालिऊण एवं सावयधम्म तओवसाणम्मि । सल्लेहणं च विहिणा काऊण समाहिणा कालं ॥ सोहम्माइसु जायइ कप्पविमाणेसु अच्चुयंतेसु । उपवादगिहे कोमलसुयंधसिलसंपुडस्संते५ ।।४९५ . अंतोमहत्तकालेण तओ पज्जत्तिओ समाणेइ । दिव्यामलदेहधरो जायइ णवजुव्वणो चेव ।।४९६ समचउरससंठाणो रसाइधाऊहिं वज्जियसरीरों। दिणयरसहस्सतेओ णवकुवलयसुरहिणिस्सासो॥ नयनोंसे और पुष्पोंकी उत्तम मालाओंके समूहसे समचित देहवाला कामदेव होता है ॥४८५।। नैवेद्यके चढानेसे मनुष्य शक्तिमान् कान्ति और तेजसे सम्पन्न, और सौन्दर्यरूपी समद्रकी वेला (तट) वर्ती तरंगोंसे संप्लावित शरीरवाला अर्थात् अतिसुन्दर होता है ।। ४८६॥ दीपोंसे पूजा करनेवाला मनुष्य सद्भावोंके योगसे उत्पन्न हुए केवलज्ञानरूपी प्रदीपके तेजसे समस्त जीवद्रव्यादि तत्त्वोंके रहस्यको प्रकाशित करनेवाला अर्थात् केवलज्ञानी होता है।'४८७।। धूपसे पूजा करनेवाला मनुष्य चन्द्रमाके समान धवल कीर्तिसे जगत्त्रयको धवल करनेवाला अर्थात् त्रैलोक्यव्याप यशवाला होता है । फलोंसे पूजा करनेवाला मनुष्य परम निर्वाणका सुखरूप फल पानेवाला होता है ।। ४८८।। जिनमन्दिरमें घंटा समर्पण करनेवाला पुरुष घंटाओंके शब्दसे आकुल अर्थात् व्याप्त, श्रेष्ठ विमानोंमें सुर-समूहसे सेवित होकर प्रवर-अप्सराओंके मध्यमें क्रीडा करता है।४८९ । छत्र-प्रदान करनेसे मनष्य शत्ररहित होकर पृथ्वीको एक-छत्र भोगता है। तथा चमरोंके दानसे चमरोंके समूहों द्वारा पग्विीजित किया जाता हैं, अर्थात् उसके ऊपर चमर ढोरे जाते हैं ।।४९०।। जिनभगवान्के अभिषेक करनेके फलसे मनुष्य सुटर्शनमेरुके ऊपर क्षीरसागरके जलसे सुरेन्द्र प्रमुख देवोंके द्वारा भक्तिके साथ अभिषिक्त किया जाता है ॥४९१। जिन-मन्दिरमें बिजय-पताकाओंके देनेसे मनुष्य संग्रामके मध्य विजयी होता है । तथा षट्खंडरूप भारतवर्षका निष्प्रतिपक्ष स्वामी और यशस्वी होता हैं ॥४९२॥ अधिक कहने से क्या लाभ है, तीनों ही लोकोंमें जो कुछ भी सुख है, वह सब पूजाके फलसे प्राप्त होता हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं है ।।४९३।। इस प्रकार श्राव रुधर्मको परिपालन कर और उसके अन्तमें विधिपूर्वक सल्लेखना करके समाधिसे मरण कर अपने पुण्यके अनुसार सौधर्म स्वर्गको आदि लेकर अच्युत स्वर्ग पर्यन्त कल्पविमानोंमें उत्पन्न होता हैं । वहाँके उपपादगहोंके कोमल एवं सुगन्धयुक्त शिला-सम्पुटके मध्य में जन्म में लेकर अन्तर्मुहूर्त काल द्वारा अपनी छहों पर्याप्तियोंको सम्पन्न कर लेता है तथा अन्तर्मुहूर्त के ही भीतर दिव्य निर्मल देहका धारक १ ब. णिवेज्ज । २ झ छत्तिहिं । ३ सपत्नपरिहीनः । । ४ ब. जसंसी | ५ झ. प. सपुडस्तो | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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