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________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार अहवा आगम-जोगमाइ 'भेएहि सुनमग्गेण । णाऊण भावपुज्जा कायव्वा देसविरहि ।।४७७ एसा छव्हिपूजा णिच्च धम्माणरायरत्त हि । जहजोग्गं कायव्वा सव्र्व्वेहि पि देस विरहि ||४७८ (१) एयारसंगधारी जो हसहस्सेण सुरवरदो वि । पूजाफलं ण सक्कइ णिस्सेसं वणिउ जम्हा ॥ ४७९ तम्हा है जियसत्तीए थोयवयणेण किं पि वोच्छामि । धम्माणुरायरत्तो भवियजणो होइ जं सब्बो ||४८० 'कुत्थंभरिदलमेत्तं' जिणभवणे जो ठवेह जिणपडिमं । सरिसवमेत्तं पिलहेइ सो जरो तित्ययरपुष्णं ।। ४८१ जो पुण जिनिदभवणं समुण्णयं परिहि-तोरणसमग्गं । जिम्मावर तस्स फलं को सक्कड़ वणिजं स्यलं ।। ४८२ (२) जलधाराणिवखेवेण पावमलसोहणं हवे नियमं । चंदणलेवेण णरों जावइ नोहग्गसंपण्णो ॥ ४८३ जायइ अक्खयणि ह रयणसामिओ अक्वएहि अक्खोहो । अक्खीणलद्वित्तो अक्खप्रसं क्खं च पावेइ ॥ ४८४ कुसुमेहिं कुसेस यवयणु तरुणीजणणयण- कुसुमवरमाला वलएण चिचय दे हो जयइ कुसुमाउहो चेव ४८५ वर्णं, रस, गंध और स्पर्शसे रहित, केवल ज्ञान दर्शन स्वरूप जो सिद्ध परमेष्ठीका या शुद्ध आत्माका ध्यान किया जाता हैं, वह रूपातीत ध्यान है ||४७६ ॥ अथवा आगमभावपूजा और आगमभावपूजा आदिके भेदसे शास्त्रानुसार भावपूजाको जानकर वह श्रावकोंको करना चाहिए || ४७७ || इस प्रकार यह छह प्रकारकी पूजा धर्मानुरागरक्त सर्व देशव्रती श्रावकों को यथायोग्य नित्य ही करना चाहिए ||४७८|| जबकि ग्यारह अंगका धारक, देवोंमें सर्वश्रेष्ठ इन्द्र भी सहस्र जिव्हाओंसे पूजा के समस्त फलको वर्णन करने के लिए समर्थ नहीं हैं, तब मैं अपनी शक्तिके अनुसार थोडेसे वचन द्वारा कुछ कहूँगा, जिससे कि सर्व भव्य जन धर्मानुरागमें अनुरक्त हो जावें ।।४७९-४८०।। जो मनुष्य कुन्थुम्भरी (धनिया) के दलमात्र अर्थात् पत्र बराबर जिनभवन बनवाकर उसमें सरसोंके बराबर भी जिनप्रतिमाको स्थापन करता हैं, वह तीर्थंकर पद पानेके योग्य पुण्यको प्राप्त करता हैं, तब जो कोई अति उन्नत और परिधि, तोरण आदिसे संयुक्त जिनेन्द्रभवन बनवाता है, उसका समस्त फल वर्णन करनेके लिए कौन समर्थ हो सकता हैं ।।४८१४८२ ॥ पूजन के समय नियमसे जिन भगवान्‌ के आगे जलधाराके छोडने से पापरूपी मैलका संशोधन होता हैं । चन्दनरसके लेपसे मनुष्य सौभाग्यसे सम्पन्न होता हैं ।। ४८३ || अक्षतोंसे ' पूजा करनेवाला मनुष्य अक्षय नौ निधि और चौदह रत्नोंका स्वामी चक्रवर्ती होता हैं, सदा अक्षोभ अर्थात् रोगशोक-रहित निर्भय रहता हैं, अक्षीण लब्धि से सम्पन्न होता है और अन्त में अक्षय मोक्ष सुखको पाता है । ८८४॥ पुष्पोंसे पूजा करनेवाला मनुष्य कमल के समान सुन्दर मुखवाला, तरुणीजनों के कठूंबरि १ झ ब णोआगमेहि । २ ध सव्वे । ३ ध कुस्तुंबरी दलय । प कुस्तंभरिदलमेत्ते फलमात्रे । ४ धणियादलमात्रे । ४७५ ( १ ) इत्येषा षड्विधा पूजा यथाशक्ति स्वभक्तितः । यथाविधिविधातव्या प्रयतैर्देशसंयतेः ॥ २४४ ॥ (२) कुंस्तुवरखण्ड मात्र यो निर्माप्य जिनालयम् । स्थापयेत्प्रतिमां स स्यात् त्रैलोक्यस्तुतिगोचरः २४५ यस्तु निर्मापयेत्तुंङग जिनचैत्यं मनोहरम् । वक्तुं तस्य फलं शक्तः कथं सर्व विदोऽखिलम् २४६ - गुण. श्राव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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