SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 171
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५४ श्रावकाचार - संग्रह जीवन्तु वा स्त्रियन्तां वा प्राणिनोऽमी स्वकर्मतः । स्वं विशुद्धं मनो हिंसन् हिंसकः पापभाग्भवेत् ॥ २३५ शुद्ध मार्गमतोद्योगः शुद्धचेतोत्रचोवपुः । शुद्धान्तरात्मसंपन्नो हिसकोऽपि न हिंसकः ॥ २३६ पुण्यायापि भवेद् दुःखं पापायापि भवेत्सुखम् । स्वस्मिन्नन्यत्र वा नीतमचिन्त्यं चित्तचेष्टितम् ।।२३७ सुखदुःखाविधातापि भवेत्पापसमा त्रयः । पेटीमध्य विनिक्षिप्तं वासः स्यान्मलिनं न किम् || २३८ बहिष्कार्यासमर्थेऽपि हृदि हृद्येव संस्थिते । परं पापं परं पुण्यं परमं च पदं भवेत् ।। २३९ प्रकुर्वाणः क्रियास्तास्ताः केवलं क्लेशभाजनः । यों न चित्तप्रचारज्ञस्तस्य मोक्षपदं कुतः ॥ २४० यज्जानाति यथावस्थं वस्तु सर्वस्वमञ्जसा । तृतीयं लोचनं नृणां सम्यग्ज्ञानं तदुच्यते ।। २४१. यष्टिवज्जनुषान्धस्य तत्स्यात्सुकृतचेतसः । प्रवृत्तिविनिवृत्त्यङ्गं हिताहित विवेचनात् ।। २४२ मतिर्जात दृष्टेऽर्थे दृष्टेऽदृष्टे तथागमः । अतो न दुर्लभं तत्त्वं यदि निर्मत्सरं मनः ।। २४३ यद्यर्थे दर्शितेऽपि स्याज्जन्तोः सन्तमसा मतिः । ज्ञानमालोकवत्तस्य वृथा रविरिपोरिव ।। २४४ ज्ञातुरेव स दोषोऽयं यदबाधेऽपि वस्तुनि । मतिविपर्ययं धत्ते यथेन्दो मन्दचक्षुषः ॥ २४५ ज्ञानमेकं पुनर्द्वधा पञ्चधा चापि तद्भवेत् । अन्यत्र केवलज्ञानात्तत्प्रत्येकमनेकधा ।। २४६ जल में स्वयं बहने की शक्ति हैं, किन्तु नाली उसके बहने में निमित्तमात्र है || २३३-२३४|| ये प्राणी अपने कर्मके उदयसे जीवें या मरें, किन्तु अपने विशुद्ध मनकी हिंसा करने वाला हिंसक है और इसलिए वह पापका भागी हैं। जो शुद्ध मार्ग में प्रयत्नशील हैं, जिसका मन, वचन और शरीर शुद्ध हैं, तथा जिसकी अन्तरात्मा भी शुद्ध है वह हिंसा करके भी हिंसक नहीं हैं ।। २३५-२३६ ।। अपनेको या दूसरेको सुख या दुःखका नहीं देने वाला भी मनुष्य पापका आश्रयवाला होता हैं । अर्थात् यदि उसका मन राग-द्वेषके प्रसारसे युक्त हैं, तो वह स्व-परको सुख-दुःख नहीं देने पर भी पापका आश्रय करता है । पेटीके भीतर रखा हुआ वस्त्र क्या मैला नहीं होता है? होता ही है ।। २३७-२३८ ।। बाह्य क्रिया न करते हुए भी यदि चित्त चित्त में ही लीन रहता है तो उत्कृष्ट यान, उत्कृष्ट पुण्य और उत्कृष्ट पद मोक्ष प्राप्त हो सकता हैं । जो केवल बाह्य क्रियाओंको करनेका ही कष्ट उठाता रहता हैं और चित्तकी चंचलताको नहीं समझता, उसे मोक्ष पद कैसे प्राप्त हो सकता हैं ? ।।२३९-२४०।। ( अब सम्यग्ज्ञानका स्वरूप बतलाते हैं -) जो सब वस्तुओंको ठीक रीतिसे जैसाका - तैसा जानता है उसे सम्यग्ज्ञान कहते है। यह सम्यग्ज्ञान मनुष्यों का तीसरा नेत्र है । जैसे जन्मसे अन्धे मनुष्यको लाठी ऊँचीनीची जगहको बतलाकर उसे चलने और रुकने में मदद देती हैं वैसे ही सम्यग्ज्ञान हित और अहितका विवेचन करके धर्मात्मा पुरुषको हितकारक कार्योंमें लगाता है और अहित करनेवाले कामों से रोकता हैं |२४१ - २४२॥ मतिज्ञान तो इन्द्रियोंके विषयभूत पदार्थोंको ही जानता है । किन्तु शास्त्र (श्रुतज्ञान) इन्द्रियोंके विषयभूत और अतीन्द्रिय दोनों प्रकारके पदार्थोंका ज्ञान करता हैं। अतः यदि ज्ञाताका मन ईर्षा, द्वेष आदि दुर्भावोंसे रहित हैं तो उसे तत्त्वका ज्ञान होना दुर्लभ नहीं है ।.२४३।। यदि तत्त्वके जान लेनेपर भी मनुष्यकी बुद्धि अन्धकारमें रहती है तो जैसे उल्लू के लिए प्रकाश व्यर्थ होता है वैसे ही उस मनुष्यका ज्ञान भी व्यर्थ है । साफ स्पष्ट वस्तुमें भी बुद्धिका विपरीत होना ज्ञाता के ही दोषको बतलाता हैं । जैसे चन्द्रमाके विषय में काच कामलादि रोग ग्रस्त नेत्रवाले मनुष्यको विपरीत ज्ञान होता हैं- एकके दो चन्द्रमा दिखायी देते है । यह ज्ञाताकी ही खराबी हैं, चन्द्रमाकी नहीं ॥२४४-२४५ ॥ । सामान्यसे ज्ञान एक है । प्रत्यक्ष परोक्ष के भेदसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy