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________________ यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन १५५ अधर्मकर्मनिमवितर्धर्मकर्मविनिर्मितिः । चारित्रं तच्च सागारानगारयतिसंश्रयम् ।। २४७ देशत: प्रथम तत्स्यात्सर्वतस्तु द्वितीयकम् । चारित्रं चारुचारित्रविचारोचितचेतसाम् ।। २४८।। देशत: सर्वतो वापि नरो न लभते धतम् । स्वर्गापवर्गयोर्यस्य नास्त्यन्यतरयोग्यता ।। २४९ तुण्डकण्डहरं शास्त्रं सम्यदत्त्वविधरे नरे ज्ञानहीने तु चारित्रं दुभंगाभरणोपमम् ।। २५० सम्यक्त्वात्सुगतिः प्रोक्ता ज्ञानात्कोतिरुदाहृता । वृत्तात्पूजामवाप्नोति त्रयाच्च लभते शिवम्।।२५१ रुचिस्तत्त्वेष सम्यक्त्वं ज्ञ.नं तत्त्वनिरूपणम् । औदापीन्य परं प्राहुर्वृत्तं सर्वक्रियोज्झितम् ।। २५२ वत्तमग्निरुपायो धी: सम्यक्त्वं च रसौषधिः । साधसिद्धो भवेदेष तल्लाभादात्मपारदः ॥ २५३ सम्यक्त्वस्याश्रयश्चित्तमभ्या पो मतिसम्पदः । चारित्रस्य शरी स्याद्वित्तं दानादिकर्मणः ॥२५४ इति श्री सोमदेवसूरि-विरचिते उपासकाध्यने अपवर्गमहोदयों नाम षष्ठ आश्वासः । अथ सप्तम आश्वासः पुनर्गुणमणिकटक वेकटकमेव माणिक्यस्य,सुधाविधानमिव प्रासादस्य, पुरुषकारानुष्ठानमिव देवसम्पदः, पराक्रमावलम्बनमिव नीतिमार्गस्य, विशेषवेदित्वमिव सेव्यत्वस्य, व्रतं हि खलु वह दो प्रकारका हैं । तथा मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यय और केवलज्ञानके भेदसे पाँच प्रकारका है। केवल ज्ञानके सिवाय अन्य चार ज्ञानोंमें से प्रत्येकके अनेक भेद हैं ॥२४६।। बुरे कामोंसे बचना और अच्छे कामोंमें लगना चारित्र है । वह चारित्र गृहस्थ और मुनिके भेदसे दो प्रकारका हैं । गृहस्थोंका चारित्र देशचारित्र कहा जाता है और मुनियोंका चारित्र सकल चारित्र कहा जाता है। जिनके चित्त सद्विचारोंसे युक्त हैं वे ही चारित्रका पालन कर सकते है। जिस मनुष्य में स्वर्ग और मोक्षम-से किसीको भी प्राप्त कर सकनेकी योग्यता नहीं है वह न तो देशचारित्र हो पाल सकता हैं और न सकलचारित्र ही पाल सकता है। जो मनुष्य सम्यग्दर्श नसे रहित है उसका शास्त्र-वाचन मुखको खाज मिटानेका एक साधनमात्र है। और जो मनुष्य ज्ञानसे रहित हैं उसका चारित्र धारण करना विधवा स्त्री के आभूषण धारण करनेके समान हैं ॥२४७-२५०॥ सम्यग्दर्शनसे अच्छी गति मिलती हैं । सम्यग्ज्ञानसे ससारमें यश फैलता है। सम्यक्चारित्रसे सम्मान प्राप्त होता हैं और तीनोंसे मोक्षकी प्राप्ति है ॥२५१।। तत्त्वोंमें रुचिका होना सम्यग्दर्शन हैं । तत्त्वोंका यथार्थ जानना सम्यग्ज्ञान है और समस्त क्रियाओंको छोडकर अत्यन्त उदासीन हो जाना सम्यक्चारित्र है ।। २५२ ।। चारित्र अग्नि है, सम्यग्ज्ञान उपाय है और सम्यग्दर्शन परिपूर्ण औषधियोंके तुल्य है। इन सबके मिलनेपर आत्मारूपी पारदधातु अच्छी तरह सिद्ध हो जाता हैं ।।२५३।। भावार्थ-पारेको सिद्ध करने के लिए रसायनशास्त्री उसमें अनेक औषधियोंके रमोंकी भावना दे-देकर आगपर तपाते है तब पारा सिद्ध हो जाता है वैसे ही आत्मारूपी पारदको सिद्ध करनेके लिए चारित्ररूपी अग्नि, सम्यग्ज्ञानरूपी उपाय और सम्यग्दर्शनरूपी औषधियाँ शावश्यक है। उनके मिलनेंपर आत्मा सिद्ध अर्थात् मुक्त हो जाता है। सम्यग्दर्शनका आश्रय चित्त है । सम्यक्ज्ञानका आश्रय अभ्यास है । सम्यक्चारित्रका आश्रय शरीर है और दानादि कार्यका आश्रय धन है ।। २५४ ।। इस प्रकार श्री सोमदेव सूरि विरचित उपासकाध्ययनमें रत्नत्रयका स्वरूप बतलानेवाला छठा आश्वास समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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