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________________ श्रावकाचार-संग्रह 1 सम्यक्त्वरत्नस्योपबृंहकमाहुः । तच्च देशयतीनां द्विविध मूलोत्तरगुणाश्रयणात् । तत्रमद्यमांसमधुत्यागः सहोदुम्बरञ्चकैः । अष्टावेते गृहस्थानामुक्ता मूलगुणाः श्रुते ।। २५५ सर्वदोषोदयो मद्यान्महामोहकृतेर्मतः । सर्वेषां पातकानां च पुर सरतया स्थितम् ॥ २५६ हिताहितविमोहेन देहिनः किं न पातकम् । कुर्युः संसारकान्तारपरिभ्रमणकारणम् : २५७ मद्येन यादवा नष्टा नष्टा द्यूतेन पाण्डवाः । इति सर्वत्र लोकेऽस्मिन्सुप्रसिद्धं कथानकम् ।। २५८ विपद्येह देहिनोऽनेकशः किल । मद्यीभवन्ति कालेन मनोमोहाय देहिनाम् ।। २५९ कबिन्दुसंपन्नाः प्राणिनः प्रचरन्ति चेत् । पूरयेयुर्न संदेहं समस्तमपि विष्टपम् ।। २६० मनोमोहस्य हेतुत्वान्निदानत्वाच्च दुर्गतेः । मद्यं सद्भिः सदा त्याज्यमिहामुत्र च दोषकृत् ॥ २६१ हेतुशुद्धेः श्रुतेर्वाक्यात्पीतमद्यः किलैकपात् । मांसमातङ्गिकासङ्गमकरोन्मूढमानसः ।। २६२ एकस्मिन्वासरे मद्यनिवृत्तेर्धी तिलः किल । एतद्दोषात्सहायेषु मृतेष्वापदनापदम् ।। २६३ स्वभावाशुचि दुर्गन्धमन्यापायं दुरास्पदम् । सन्तोऽदन्ति कथं मांसं विपाके दुर्गतिप्रदम् । २६४ कर्माकृत्यमपि प्राणी करोतु यदि चात्मनः । हन्यमानविधिर्न स्यादन्यथा वान जीवनम् ॥ २६५ १५६ मद्य, 1 जैसे शाणसे माणिक, चुनाकी सफेदी से मकान, पौरुष करनेसे दैव, पराक्रमसे नीति और विशेषज्ञतासे सेव्यपना चमक उठता है वैसे ही व्रत भी सम्यक्त्वरूपी रत्नको चमका देता हैं । गृहस्थोंके व्रत मूल गुण और उत्तर गुणके भेदसे दो प्रकारके होते है । आगम में पाँच उदुम्बर और मांस तथा मधुका त्याग ये आठ मूल गुण गृहस्थोंके बतलाये है || २५५॥ मद्य महामोहको करनेवाला है । सब बुराइयोंका मूल हैं और सब पापों का अगुआ है ॥ २५६॥ इसके पीनेसे मनुष्यको हित और अहितका ज्ञान नहीं रहता । और हित-अहितका ज्ञान न रहने से प्राणी संसाररूपी जंगलमें भटकानेवाला कौन-सा पाप नहीं करते ? ।। २५७ ॥ | सब लोक में यह कथा प्रसिद्ध हैं कि शराब पीनेके कारण यादव बरबाद हो गये और जुआ खेलने के कारण पाण्डव बरबाद हो गये ।। २५८।। जन्तु अनेक बार जन्म-मरण करके कालके द्वारा प्राणियों का मन मोहित करनेके लिए मद्यका रूप धारण करते हैं ।। २५९ ।। मद्यकी एक बूंदमें इतने जीव रहते हैं कि यदि वे फैले तो समस्त जगत् में भर जायें । इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है || २६० ॥ यतः मद्यपानसे मन हित अहितके विचारसे शून्य हो जाता है और वह दुर्गतिका कारण हैं, अतः इस लोक और परलोकमें बुराइयों को पैदा करनेवाले मद्यका सज्जन पुरुषोंको सदाके लिए त्याग करना चाहिए ॥ २६९ ॥ "मद्यको उत्पन्न करने वाली वस्तुओंके शुद्ध होनेसे तथा वेदमें लिखा होनेसे मूढ एकपातने मद्य पीलिया और फिर उसने मांस भी खाया और भिल्लनीको भी भोगा" || २६२ । । उक्त कथा के सम्बन्ध में एक श्लोक है, जिसका भाव इस प्रकार है- " जब कि मद्यपानके दोषसे अन्य साथी चोर मर गये तब एक दिनके लिए शराबका त्याग कर देनेसे धूर्तिल चोर बच गया " ॥ २६३॥ मांस निषेध - मांस स्वभावसे ही अपवित्र हैं, दुर्गन्धसे भरा है, दूसरोंकी जान ले लेनंपर तैयार होता हैं, तथा कसाईके घर जैसे दुस्थानसे प्राप्त होता है और विपाककालसे दुर्गतिको देता हैं, ऐसे मांसको भले आदमी कैसे खाते है ? || २६४ || यदि जिस पशुको मांस के लिये हम मारते है, दूसरे जन्म में वह हमें न मारे या मांसके बिना जीवन ही न रह सके तो प्राणी नहीं करने योग्य पशु हत्या भले ही करे। किन्तु ऐसी बात नहीं हैं । मांसके बिना भी मनुष्योंका जीवन चलता ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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