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________________ महापुराणान्तर्गत-श्रावकधर्म-वर्णन प्रात्पोत्कर्ष तदस्य स्यात्तपश्चिन्तामणेः फलम् । यतोऽर्हज्जातिमादिप्राप्तिः सैषाऽनुणिता। १९८ जैनेश्वरी परामाज्ञां सूत्रोद्दिष्टां प्रमाणयन् । तपस्यां यदुपाधत्ते पारिवाज्यं तदाञ्जसम् ।। १.९ अन्यैश्च बहवाग्जाले तिबद्धं युक्तिगधितम् । पारिवाज्यं परित्यज्य ग्राह्य चेदमनुत्तरम् ।। २०० इतिपारिवाज्यम। या सुरेन्द्रपदप्राप्ति: पारिवाज्यफलोदयात् । सैषा सुरेन्द्रता नाम क्रिया प्रागनुर्वाणता ।। ६०१ इतिसुरेन्द्रता। साम्राज्यमाधिराज्यं स्याच्चक्ररत्नपुरःसरम् । निधि त्नसमुद्भूतं भोगसम्पत्परम्परम् ।। २०२ इतिसाम्राज्यम्। आहंन्त्यमहतो भावो कम वेति परा क्रिया । यत्र स्वर्गावतारादिमहाकल्याणसम्पद: ।। २०३ याऽसौ दिवोऽवतीर्णस्य प्राप्तिः कल्याणसम्पदाम् । तदाहन्त्यमिति ज्ञयं त्रैलोक्यक्षोभकारणम्॥२०४ ___ इत्यार्हन्त्यम् । भवबन्धनमुक्तस्य यावस्था परमात्मनः । परिनिर्वृत्तिरिष्टा सा परं निर्वाणमित्यपि ॥ २.५ कृत्स्नकममलापायात संशुद्धिर्याऽन्तरात्मनः । सिद्धिः स्वात्मोपलब्धिः सा नाभावों न गुणोच्छिदा ॥ २०६ इतिनिर्वृत्तिः। इत्यागमानुसारेण प्रोक्ताः कन्वयक्रियाः । सप्तताः परमस्थानसङ्गतिर्यत्र योगिनाम् ॥ २०७ योऽनुतिष्ठत्यतन्द्रालुः क्रियाह्येतास्त्रिधोदिताःसोऽधिगच्छत् परं धाम यत्सम्प्राप्तो परं शिवम्।।२०८ कर देता हैं।।१९७।। जिस तपश्चरणरूपी चिन्तामणिका फल परम उत्कर्षको प्राप्त कराना हैं और जिससे अर्हन्त देवकी जाति और मूर्ति आदिकी प्राप्ति होती हैं,ऐसी इस पारिब्राज्य क्रियाका वर्णन किया ।।१९.८ । जो आगमोक्त जैनेश्वरी परम आज्ञाको प्रमाण मानता हुआ तपस्याको धारण करता है,उसीके वास्तविक पारिव्राज्य क्रिया होती हैं ।।१९९।। अन्य लोगोंके द्वारा बहुतसे वचन जालमें निबद्ध और युक्तिसे बाधित पारिवाज्यको छोडकर इस जैनेश्वरीय अनुपम पारिवाज्यको ग्रहण करना चाहिए ॥२००। इसप्रकार यह तीसरी पारिव्राज्य क्रिया है । पारिव्राज्य धारण करनेके फलोदयसे जो सुरेन्द्रपदकी प्राप्ति होती हैं,वही सुरेन्द्रता नामकी क्रिया है, जिसका पहले वर्णन किया जा चुका है ॥२०१॥ यह चौथी सुरेन्द्रता क्रिया है। जिसमें चक्ररन्नके साथ निधियों और रत्नोंसे उत्पन्न हुई भोगोपभोगरूप सम्पदाकी परम्परा प्राप्त होती है, ऐसा चक्रवर्तीका महान् राज्य साम्राज्य कहलाता है ॥२०२।। यह पाँचवीं साम्राज्य क्रिया है । अर्हत्परमेष्ठीके भाव या कर्मरूप जो उत्कृष्ट क्रिया है, उसे आर्हन्त्य क्रिया कहते है। इस क्रियामें स्वर्गावतार आदि पंच महाकल्याणरूप सम्पदा प्राप्त होती है ।।२०३।। स्वर्गसे अवतीर्ण तीर्थकरके जो कल्याणकरूप सम्पदाकी प्राप्ति होती है और त्रैलोक्यमें क्षोभका कारण है,उसे आर्हन्त्य क्रिया जाननी चाहिए ॥२०४॥ यहछठी आर्हन्त्यक्रिया हैं । भबबन्धनसे मुक्त हुए परमात्माकी जो अवस्था होती है,उसे परिनिर्वृति कहते है, इसका दूसरा नाम परिनिर्वाण भी है ॥२०५॥ समस्त कर्ममलके दूर हो जानेसे जो अन्तरात्माकी शुद्धि होती है, उसे सिद्धि कहते हैं । वह अपने आत्मतत्त्वकी प्राप्तिरूप है । यह सिद्धि न अभावरूप है और न ज्ञानादि गुणोंके उच्छेदरूप है ॥२०६॥यह सातवीं परिनिर्वति क्रिया हैं ।इसप्रकार आगमके अनुसार ये सात कन्वय क्रियाएँ कही गई है। इन क्रियाओंका पालन करनेसे योगियोंको परम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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