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________________ श्रावकाचार - संग्रह गृहशोभां कृतारक्षां दूरीकृत्य तपस्यतः । श्रीमण्डपादिशोभास्य स्वतोऽभ्येति पुरोगताम् ।। १८६ तपोऽवगाहनादस्य गहनान्यधितिष्ठतः । त्रिजगज्जनतास्थानसहं स्वादवगाहनम् ।। १८७ क्षेत्र वास्तुसमुत्सर्गात् क्षेत्रज्ञत्वमुपेयुषः । स्वाधीन त्रिजगत्क्षेत्र मैश्य मस्योपजायते ।। १८८ आज्ञाभिमानमुत्सृज्य मौनमास्थितवानयम् । प्राप्नोति परमामाज्ञां सुरासुरशिरोधृताम् ॥ १८९ स्वामिष्टमृत्यबन्ध्वादिसभामुत्सृष्टवानयम् । परमाप्तपद प्राप्तावध्यास्ते त्रिजगत्सभाम् ।। १९० स्वगुणtentर्तनं त्यक्त्वा त्यक्तकामो महातपाः । स्तुतिनिन्दासमो भूयः कीर्त्यते भुवनेश्वरैः । १९१ वन्दित्वा वन्द्यमर्हन्तं यतोऽनुष्ठितवांस्तप: । ततोऽयं बन्द्यते वन्द्येर निद्यगुणसन्निधिः ।। १९२ तपोऽयमनुपानत्कः पादचारी विवाहनः । कृतवान् पद्मगर्भेषु चरणन्या समर्हति ॥ १९३ वाग्गुप्तो हितवाग्वृत्त्या यतोऽयं तपसि स्थितः । ततोऽस्य दिव्यभाषा स्यात् प्रीणयन्त्यखिलां सभाम् ।। १९४ अनाश्वान्नियताहारपारणोऽतप्त यत्तपः । तदस्य दिव्यविजयपरमामृततृप्तयः ।। १९५ स्यक्तकामसुखो भूत्वा तपस्यस्थाच्चिरं यतः । ततोऽयं सुखसाद्भूत्वा परमानन्दथुं भजेत् ॥ १९६ किमत्र बहुनोक्तेन यद्यदिष्टं यथाविधम् । त्यजेन्मुनिर संकल्पस्तत्तत्सूतेऽस्य तत्तपः ।। १९७ क्रिया हैं, इसीकारणसे अरहन्त अवस्थामें उसे अशोक महावृक्ष प्राप्त होता हैं ।। १८४ ।। जो अपने योग्य धनको छोडकर निर्ममत्व भावको प्राप्त होता हैं, वह स्वयं आकर दूर समवसरण द्वारपर खडी हुई निधियोंसे सेवित होता हैं । १८५ ॥ जो सर्व ओरसे सुरक्षित गृहकी शोभाको छोडकर तपश्चरण करता हैं, उसके श्रीमण्डप ( समवसरण ) आदिकी शोभा अपने आप ही सम्मुख आती है ।। १८६ ॥ जो गहन वनों में निवासकर तपोंका अवगाहन करता हैं, उसके समवसरण में तीन जगत्की जनताको स्थान देनेवाली अवगाहन शक्ति प्राप्त होती हैं ।। १८७ ।। जो क्षेत्र वास्तु आदिका परित्यागकर अपने शुद्ध आत्मरूप क्षेत्रज्ञताको प्राप्त करता है, उसके तीनों जगत्के क्षेत्रको स्वाधीन रखनेवाला परम ऐश्वर्य प्राप्त होता है ॥१८८॥ जो अपने आज्ञाभिमानको छोडकर मौनको धारण करता है, वह सुरअसुरोंद्वारा शिरोधार्य परम आज्ञाको प्राप्त होता है ।। १८९ ।। जो अपने इष्ट सेवक बंधु आदि की सभाको छोडकर तप करता हैं, वह परम आप्तपद प्राप्त होनेपर त्रिजगत् की सभा ( समवसरण ) में विराजमान होता है । । १९० ।। जो अपने गुणोंकी प्रशंसा करना छोड़कर, इच्छा-रहित हो महान् तपश्चरण करता हैं और अपनी स्तुति-निन्दामें समान रहता है, उसका यश भुवनके ईश्वर इन्द्रादिकोंद्वारा गाया जाता है ।।१९१ ॥ | जिसने वन्दनीय अर्हन्तकी वन्दना करके तपका अनुष्ठान किया है, वह अनिन्द्य ( प्रशंसनीय ) गुणोंका भण्डार बनकर वन्दनीय गणधरादि देवोंके द्वारा वन्दना किया जाता है ॥ १९२॥ जो पादत्राण ( जूता ) और वाहनका परित्यागकर और पादचारी बनकर तपश्चरण करता है, वह देव - स्थापित पद्मोंके मध्य भागपर पाद-न्यासके योग्य होता है ॥१९३॥ जो वचन गतिको धारणकर, अथवा हितकारिणी वाणी बोलता हुआ तपमें स्थित रहता हैं, उसके समस्त सभा को प्रसन्न करनेवाली दिव्यभाषा प्राप्त होती हैं || १९४ ।। जो अनशन करके अथवा नियमित आहार और पारणाएँ करके तपको तपता है, उसके दिव्यतृप्ति, परमतृप्ति और अमृततृप्ति ये चारों ही तृप्तियाँ प्राप्त होती है । । १९५॥ जो मुनि काम-जनित सुखको छोड़कर चिरकाल तक तपमें स्थित रहता है, वह सुखस्वरूप होकर परमानन्द पदको प्राप्त करता है । । १९६ ॥ इस विषय में बहुत कुछ कहनेसे क्या लाभ है । संक्षेपमें इतना ही समझना चाहिए कि जो मुनि संकल्प- रहित होकर जिस जिस प्रकारकी वस्तुका त्याग करता है, उसका तपश्चरण उसी प्रकारकी उत्तम वस्तुको उत्पन्न ७२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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