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________________ ३३० श्रावकाचार-संग्रह मित्ये जीवे सर्वदा विद्यमाने कादाचित्का हेतुना केन सन्ति । निर्मुक्तानां जायमाना निषे, ते शक्यन्ते केन मुक्तिश्च तेभ्यः ।। ५७ तुल्यप्रतापोधमसाहसाना केचिल्लभन्ते निजकार्यसिद्धिम् । परे न तामत्र निगद्यतां मे कर्माणि हित्वा यदि कोऽपि हेतुः ।। ५८ विचित्रदेहाकृतिवर्णगन्धप्रभावजातिप्रभवस्वभावाः । केन क्रियन्ते भुवनेऽङ्गिवर्गाश्चिरन्तनं कर्म निरस्य चित्राः ।। ५९ विवद्धर्थ मासान्नव गर्भमध्ये बहुप्रकारैः कलिलादिभावः ।। उद्वयं निष्कासयते सवित्र्याः को गर्मतः कर्म विहाय पूर्वम् ।। ६. विलोकमानाः स्वयमेव शक्ति विकारहेतुं विषमयाजाताम् । अचेतनं कर्म करोति कार्य कथं वदन्तीति कथं विदग्धाः ।। ६१ नानाप्रकारा मुवि वृक्षजातीविध्य पत्राणि पुरातनानि । अचेतन: कि न करोति कालः प्रत्यग्रपुष्पप्रसवादिरम्याः ॥ ६२ यैनि:शेषं चेतनामुक्तमुक्तं कार्याकारि ध्वस्तकार्यावबोधः । धर्माधर्माकाशकालावि सर्वं द्रव्यं तेषां निष्फलत्वं प्रयाति ॥ ६३ क्योंकि रागादि भावोंको जीव-जनित मानने पर उनका जीवके साथ नित्य सम्बन्ध प्राप्त होता है, फिर उनका प्रतिषेध कैसे किया जा सकेगा? भावार्थ-यदि रागादि भावोंको आत्माका स्वभाव माना जाय, तो स्वभावका अभाव कभी होता नहीं, अतः मुक्त जीवों के भी उनका सद्भाव मानना पडेगा। किन्तु मुक्त जीवोंके रागादिका अभाव सभी मानते हैं । अतएव उन्हें जीवका स्वभाव नहीं माना जा सकता ।।५६।। जीवके सर्वदा नित्य विद्यमान रहने पर रागादि भावोंका कदाचित् होना किस कारणसे संभव हैं । मुक्त जीवोंके उनकी उत्पत्ति होने का निषेध कैसे किया जा सकता हैं? और उनसे मुक्ति अर्थात् छुटकारा भी कैसे हो सकता हैं । ५७ । समान प्रतापी, समान उद्यमी और समान साहसी पुरुषोंमेंसे कितने ही पुरुष तो अपने अभीष्ट कार्यकी सिद्धिको प्राप्त करते है और कितने ही पुरुष सफलताको नहीं पाते हैं। इनकी सफलता और विफलतामें यदि कर्मको छोड कर कोई अन्य हेतु हैं, तो मुझे बतलाओ? भावार्थ-समान पुरुषार्थ करने वालोंमेंसे कूछको सफलता मिलने और कुछको सफलता नहीं मिलने में कर्मके सिवाय और कोई अन्य कारण नहीं है ॥५८॥ संसारमें नाना प्रकारके विचित्र देहोंके आकार, वर्ण, गन्ध, प्रभाव, जाति और कलादिमें उत्पन्न होनेवाले भिन्न-भिन्न स्वभावके धारक प्राणियोंको पुरातन कर्मके सिवाय और कौन बनाता हैं? ॥५९॥ माताके गर्भ के मध्य में बहुत प्रकारके रस, रुधिर आदि भावोंके द्वारा नौ मास तक बढाकार पूर्व कर्मके सिवाय गर्भसे बाहिर कौन निकालता है ।।६०। यदि कहा जाय कि कर्म तो अचेतन है, वे शरीरोंके नाना प्रकारके कार्य कैसे कर सकते है? इसका उत्तर देते हुए आचार्य कहते है-विष और मदिराके पीनेसे उत्पन्न हुई विकार हेतुक शक्तिको स्वयमेय ही देखनेवाले चतुर पुरुष यह कैसे कहते हैं कि अचेतन कर्म कैसे कार्य करता है ।।६१।। और भी देखो-भतल पर अपने पुराने पत्रोंको छोडकर और नवीन उत्पन्न हुए अंकुर, पुष्प और फलादिसे रमणीय नाना प्रकारकी वक्ष जातियोंको क्या अचेतन काल नहीं करता है । भावार्थ-जैसे अचेतन काल वृक्षोंके पुराने पत्रोंको झडाकर नवीन पत्रादिको उत्पन्न करने में निमित्त है, उसी प्रकारसे अचेतन कर्म भी जीवोंके नाना प्रकारके शरीरादिके निर्माण में हेतु हैं ।।६२।। कार्य-कारण सम्बन्धी ज्ञानसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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