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________________ ६४ श्रावकाचार-संग्रह तत्र सज्जातिरित्याधा क्रिया श्रेयोऽनुबन्धिनी । या सा वाऽऽसनभव्यस्य नजन्मोपगमे भवेत् ।। ८२ सनजन्मपरिप्राप्तो दीक्षायोग्ये सदन्वये । विशुद्धं लभते जन्म सैषा सज्जातिरिष्यते ।। ८३ विशुद्धकुलजात्यादि संपत्सज्जातिरुच्यते । उदितोदितवंशत्वं यतोऽभ्येति पुमान् कृती।। ८४ पितुरन्वयशद्धिर्या तत्कुलं परिभाष्यते । मातुरन्वयशुद्धिस्तु जातिरित्यभिलप्यते ॥ ८५ विशुद्धिरुभयस्यास्य सज्जातिरनुणिता । यत्प्राप्ती सुलभा बोधिरयत्नोपनतैर्गुणः ॥ ८६ सज्जन्मप्रतिलम्भोऽयमार्यावर्तविशेषतः । सत्यां देहादिसामग्रघां श्रेयः सूते हि देहिनाम् ।। ८७ शरीरजन्मना संषा सज्जातिरुपणिता । एतन्मूला यतः सर्वाः पुंसामिष्टार्थसिद्धयः ॥ ८८ . संस्कारजन्मना चान्या सज्जातिरनुकीय॑ते । यामासाद्य द्विजन्मत्वं भव्यात्मा समुपाश्नुते ॥ ८९ विशुद्धाकरसम्भूतो मणि. संस्कार योगत: । यात्युत्कर्ष यथाऽऽत्मैवं क्रियामन्त्रः सुसंस्कृतः ॥ ९० सुवर्णधातुरथवा शुद्ध्येवासाद्य संस्क्रियाम् । यथा तथैव भव्यात्मा शुद्ध्यत्यासादितक्रियः ॥ ९१ ज्ञानजः स तु संस्कार: सम्यग्ज्ञानमनुत्तरम् । यदाथ लभते साक्षात् सर्वविन्मुखतः कृती ॥ ९२ तदेष परमज्ञानगर्भात संस्कारजन्मना । जातो भवेद् द्विजन्मेति वतैः शीलश्च भूषितः ॥ ९३ व्रतचिन्हं भवेदस्य सूत्रं मन्त्र पुरःसरम् । सर्वज्ञ ज्ञाप्रधानस्य द्रव्यभावविकल्पितम् ॥ ९४ यज्ञोपवीतमस्य स्याद् द्रव्यतस्त्रिगुणात्मकम् । सूत्रमोपासिकं तु स्याद् भावारूढस्त्रिभिगुणः ॥ ९५ क्रियाओंको कहता हूँ, जो कि अतिनिकट भव्य प्राणीको प्राप्त होती हैं ॥ ८१ ।' उन कन्वय क्रियाओंमें कल्याण करनेवाली सबसे पहली क्रिया सज्जाति हैं, जो किसी आसन्न भव्यको मनुष्य जन्मकी प्राप्ति होनेपर होती है ।। ८२ ॥ मनुष्यजन्मकी प्राप्ति होनेपर जब वह दीक्षाके योग्य उत्तम वंशमें विशुद्ध जन्म धारण करता हैं, तब उसके यह सज्जाति क्रिया कही जाती हैं ।। ८३ ।। विशुद्ध कुल और उत्तम जाति आदि सम्पदाके पानेको सज्जाति कहते हैं । इस सज्जातिसे ही पुण्यवान् पुरुष उत्तरोत्तर अभ्युदयवाले उत्तम वंशको प्राप्त होता हैं 11४11पिताके वंशकी जो शुद्धि हैं, वह कुल कहलाता हैं और माताके वंशकी शुद्धि जाति कही जाती है ॥८५॥ कुल और जाति इन दोनों की विशुद्धिको सज्जाति कहा गया है,इस सज्जातिके प्राप्त होनेपर अनायास प्राप्त हुए गुणोंके द्वारा रत्नत्रयरूप बोधिका पाना सुलभ हो जाता है । ८६ ॥ आर्यावर्तमें जन्म लेनेकी विशेषतासे यह सज्जातित्वकी प्राप्ति शरीर आदि योग्य सामग्रीके मिलनेपर जीवोंके नानाप्रकारसे कल्याणोंको उत्पन्न करती है ।। ८७ ॥ शरीरके साथ ही यह सज्जाति वर्णन की गई है, क्योंकि पुरुषोंके समस्त इष्ट पदार्थोकी सिद्धिका मूल कारण यही प्रथम सज्जाति है ॥४८॥ संस्काररूप जन्मसे उत्पन्न होनेवाली सज्जाति दूसरी है। उसे पाकर भव्यात्मा द्विजपनेको प्राप्त होता है।८९ ॥ जैसे विशुद्ध खानिमें उत्पन्न हुआ रत्न संस्कारके योगसे उत्कर्षको प्राप्त होता है, वैसे ही क्रिया और मंत्रोंसे सुसंस्कारको प्राप्त हुआ आत्मा भी परम उत्कर्षको प्राप्त होता है ॥ ९० ॥ अथवा जिस प्रकर सुवर्णधातु अग्नि आदिके द्वारा संस्कारको प्राप्त होकर शुद्ध हो जाती है,उसीप्रकार भव्य जीव भी सत्-क्रियाओंको पाकर शुद्ध हो जाता है ॥९१।। वह वास्तविक संस्कार ज्ञानसे उत्पन्न होता है और सबसे उत्कृष्ट ज्ञान सम्यग्ज्ञान है । जब भाग्यशाली भव्य साक्षात् सर्वज्ञके मुखसे उस सम्यग्ज्ञानको प्राप्त करता है, उस समय वह परमज्ञानरूप गर्भसे संस्काररूपी जन्म लेकर उन्पन्न होता है और पंच अणुव्रत तथा सप्तशीलव्रतोंसे विभूषित होकर द्विज कहलाता है।।९२-९३॥सर्वज्ञदेवकी आज्ञाको प्रधान माननेवाले उस द्विजके मंत्र पूर्वक यज्ञोपवीतसूत्रका धारण करना उसका व्रतचिन्ह है। यह यज्ञोपवीतरूप सूत्र द्रव्य और भावके भेदसे दो प्रकारका है ॥ ९४ ॥ तीन लरका यज्ञोपवीत उस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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