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________________ महापुराणान्तर्गत श्रावकधर्म-वर्णन STE यदैव लब्ध्रसंस्कार: परं ब्रह्माधिगच्छति । तदैनमभिनन्द्याशीर्वचोभिर्गणनायकाः ।। ९६ । लम्भयन्त्यचितां शेषां जैनी पुष्पैरथाक्षतैः । स्थिरीकरणमेतद्धि धर्मप्रोत्साहनं परम् ।। ९७ अयोनिम्भवं दिव्यज्ञानगर्भसमद्भवम् । सोऽधिगम्य परं जन्म तदा सज्जातिभाग्भवेत् ॥ ९८ ततोऽधिगतसज्जातिः सदाहित्वमसौ भजेत् । गृहमेधी भवन्नार्यषट्कर्माण्यनुपालयन् ।। ९९ यदुक्तं गुहचर्यायामनुष्ठान विशुद्धिमत् । तदात्तविहितं कृत्स्नमतन्द्रालुः समाचरेत् ।। १०० जिनेन्द्राल्लब्धसज्जन्मा गणेन्द्ररनुशिक्षितः । स धत्ते परमं ब्रह्मवर्चसं द्विजसत्तमः ।। ५०१ तमेनं धर्मसाद्भुत श्लाघन्ते धामिकाः जनाः । परं तेज इव ब्राह्ममवतीर्ण महीतलम् ।। १०२ स यजन् याजयन् धीमान् यजमानरूपासितः । अध्यापयन्नधीयानो वेदवेदाङ्गविस्तरम् ॥ १०३ स्पृशन्नपि महीं नैव स्पृष्टो दोषैर्महीगते. । देवत्दमात्मसात्कुर्यादिहैवाचितैर्गुणैः ॥ १०४ मा महिमवास्य गरिमेव न लाघवम् । प्राप्तिः प्राकाम्यमीशित्वं चेति तद्गुणा: ।। १०५ गुणैरेभिरुपारूढमहिमा देदसाद्भवम् । बिभ्रल्लोकातिगं धाम महामेष महीयते ॥ १०६ ।। धभ्यराचरितैः सत्यशौचक्षान्तिदमादिभिः । देवब्राह्मणतां श्लाघ्यां स्वस्मिन सम्भावयत्यसौ।। १०७ अथ जातिमदावेशात कश्चिदेनं दिजनवः । ब्रयादेवं किमद्यैव देवभयं गतो भवान ।। १०८ द्विजका द्रव्यसूत्र है । तथा सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप भावात्मक तीन गुणोंवाला जो श्रावकधर्म रूप सूत्र है,वह भावसूत्र कहलाता हैं ।।९५।। जब यह भव्य जीव संस्कारोंको पाकर परम ब्राह्मणत्वको प्राप्त होता हैं,तब गण-नायक आचार्य-गण आशीर्वादात्मक वचनोंसे उनका अभिनन्दनकर श्रीजिनेन्द्रदेवकी पूजासे शेष रहे पुष्प अथवा अक्षतोंके द्वारा उसे आशिका ग्रहण कराते हैं । यह आशिकाग्रहण एक प्रकारका धर्ममें स्थिरीकरण है और धर्म-पालन करनेमें उत्साह बढानेवाला है।॥९६-९७।। इसप्रकार जब यह भव्य जीव अयोनिसंभव और दिव्यज्ञानरूप गर्भसे उत्पन्न हुए उत्कृष्ट जन्मको प्राप्त होता हैं, तब वह सज्जातिका धारक होता है ।।९८॥ यह पहली सज्जाति क्रिया हैं । इसके पश्चात् सज्जातिको प्राप्त हुआ वह भव्य सद्-गृहस्थ होकर षट् आर्य कर्मोका परिपालन करता हआ सद्-गृहित्व क्रियाको प्राप्त होता है ।।९९।। पहले गृहचर्यामे जो-जो सर्वज्ञोक्त कर्तव्यपालन करने के लिए कह आए हैं,उन सबको उसे निर्दोषरीतिसे आलस्य-रहित होकर पालन करना चाहिए।।१०।। इस प्रकार जिनेन्द्रदेवके प्रसादसे सज्जन्मको प्राप्त और गणाधीश आचार्योसे अनुशासित वह श्रेष्ठ द्विज ब्रह्म तेजको धारण करता है ।।१०१।।धर्मको आत्मसात् करनेवाले उस द्विजको धार्मिक जन यह कहते हुए प्रशंसा करते हैं कि तू इस महीतलपर अवतीर्णं परमब्रह्म तेजके समान है ।१०२।। वह बुद्धिमान् स्वयं जिनेन्द्र देवका पूजन करते हुए अन्य लोगोंसे भी कराता हैं,स्वयं वेद-वेदांगके विस्तारको पढता हुआ दूसरोंको भी पढाता हैं और भूमिका स्पर्श करते हुए भी भूमिगत दोषोंसे स्पष्ट नहीं होता है इसप्रकार वह पूजनीय गुणोंके द्वारा इस लोकमें ही देवपनेको प्राप्त कर लेता हैं।।१०३-१०४।।इस प्रकारसे देवत्वको प्राप्त करनेपरउनकेअणिमाऋद्धि (छोटापन) नहीं हैं किन्तु महिमाऋद्धि (बडप्पन) हैं। उसके गरिमा ऋद्धि हैं, किन्तु लघिमा (लघुता)नही हैं । इसीप्रकार उसके प्राप्ति (रत्नत्रयका लाभ)प्राकाम्य (सर्वप्रियत्व) ईशित्व (सर्वस्वामित्व) और बशित्व (सबको वशमें करना) ये गुण भी उसमें रहते है ।।१०५।।इन देवोचित गुणोंके द्वारा महिमाको प्राप्त,लोकातिशायी तेजका धारक वह देवरूप भवको धारण करता हुआ इस भूमण्डल पर ही पूजा जाता है ।।१०६ ।। सत्य,शौच,क्षमा, इन्द्रिय आदि धर्मानुकूल आचरणोंसे वह अपने में प्रशंसनीय देवब्रह्मत्वको उत्पन्न करता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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