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श्रावकाचार-संग्रह
त्वमामष्यायणः किन्न किन्तेऽम्बाऽमष्य पुत्रिका । येनैवमुन्नसो भूत्वा यास्यसत्कृत्यमद्विधान् ।१०९ जाति: सैव कुलं तच्च सोऽसि योऽसि प्रगेतनः । तथापि देवतात्मानमात्मानं मन्यते भवान् ॥११० देवतातिथिपित्रग्निकार्येष्वप्रयतो भवान् । गुरुद्विजातिदेवानां प्रणामाच्च पराङ्मुखः ।। १११ दीक्षां जैनी प्रपन्नस्य जातः कोऽतिशयस्तव । यतोऽद्यापि मनुष्यस्त्वं पादचारी महीं स्पृशन्।।११२ इत्युपारू ढसंरम्भमुपालब्धः स केनचित् । ददात्युत्तरमित्यस्मै वचोभियुक्तिपेशल: ।। ११३ भ्रूयतां भो द्विजम्मन्य त्वयाऽस्मद्दिव्यसम्भवः । जिनो जनयिताऽस्माकं ज्ञानं गभौंऽतिनिर्मल: ।।११४ तत्राहंती त्रिधा भिन्नां शक्ति वैगुण्यसंश्रिताम् । स्वसा कृत्य समुद्भूतां वयं संस्कार जन्मना ।।११५ अयोनिसम्भवास्तेन देवा एव न मानुषाः । वयं वयमिवान्येऽपि सन्ति चेद् ब्रूहि तद्विधान् ।। ११६ स्वायम्भुबान्मुखाज्जाता: ततो देवद्विजा क्यम् । व्रतचिन्हं च नः सूत्रं पवित्रं सूत्रशितम् ॥११७ पापसूत्रानुगा यूयं न द्विजा सूत्रकण्ठका: । सन्मार्गकण्टकास्तीक्ष्णा: केवलं मलदूषिताः ॥ ११८ शरीरजन्म संस्कारजन्म चेति द्विधा मतम् । जन्मागिनां मतिश्चैवं द्विधाम्नाता जिनागमे।।११९ वेहान्तरपरिप्राप्तिः पूर्वदेहपरिक्षयात् । शरीरजन्म विज्ञेयं देहभाजां भवान्तरे ॥ १२० तथालब्धात्मलामस्य पुनः संस्कारयोगत: । द्विजन्मतापरिप्राप्तिर्जन्म संस्कारजं स्मृतम् ।। १२१ ॥१०७॥ अब यदि अपनेको ब्राह्मण कहनेवाला कोई पुरुष इस देवब्राह्मणको जातिमदके आवेशसे इसप्रकार कहे कि क्या आप आज ही देवपनेको प्राप्त हो गये हैं? ।।१०८॥क्या तू अमुक प्रसिद्ध पुरुषका पुत्र नहीं हैं और क्या तेरी माता अमुककी पुत्री नहीं हैं? जिससे कि तू इस प्रकार ऊँची नाक करके मेरे जैसे पुरुषोंका सत्कार किये बिना ही जाता है ।।१०९॥ यद्यपि तेरी जाति वही हैं, कुल वही हैं और तू भी वही है जो कि प्रातःकाल था तथापि तू अपने आपको देवतारूप मान रहा है ॥११०।। तू देवता, अतिथि, पितृगण और अग्नि-हवनादि कार्योंमें प्रयत्नशील नहीं हैं और गुरुः द्विजाति और देवोंको प्रणाम करनेसे भी विमुख हैं।१११॥ जैनी दीक्षाको प्राप्त हुए तेरेकौन-सा अतिशय उत्पन्न हो गया हैं? तू तो अभी पृथ्वीका स्पर्श करनेवाला पादचारी मनुष्य ही है ॥११२॥इसप्रकार अतिक्रोधित होकर कोई ब्राह्मण उपालंभ देवे,तो उसके लिये सुन्दर युक्तियोंसे भरे हुए वचनोंसे इसप्रकार उत्तर दे ॥११३॥ हे द्विजम्मन्य, (अपने आपको ब्राह्मण माननेवाले) तू मेरा दिव्य जन्म सुन, श्री जिनदेव ही हमारे जनयिता (जनक)है और ज्ञान ही अत्यन्त निर्मल गर्भ हैं ॥१४॥उस गर्भ में उपलब्धि,उपयोग और संस्कार इन तीन गुणोंके आश्रित रहनेवाली जो रत्नत्रय स्वरूपा आहती शक्ति है, उसे आत्मसात् करके हम संस्काररूप जन्मसे उत्पन्न हुए है ॥११५।। हमलोग अयोनिजन्मा है, अतः देव ही है, मनुष्य नहीं है । यदि हमारे सदृश और भी अयोनिजन्मा देव ब्राह्मण हों, तो तू उन्हें भी देवब्राह्मण ही कह॥११६॥हम लोग स्वयम्भू सर्वज्ञके मुखसे उत्पन्न हुए है, अतः हम देवद्विज ही है और व्रतोंका चिन्ह यह शास्त्रोक्त पवित्र यज्ञोपवीत सूत्र है ॥११७॥ आपलोग तो केवल पापसूत्रों (कुशास्त्रों) के अनुयायी है,केवल कंठमें सूत्र धारण करनेसे द्विज नहीं कहला सकते है । वस्तुतः आपलोग केवल सन्मार्गके तीक्ष्ण कंटक है
और मलोंसे दूषित है ॥११८॥ जीवोंका जन्म दो प्रकारका होता है,एक तो शरीरजन्म और दूसरा संस्कारजन्म । इसीप्रकार जिनागममें मरण भी दो प्रकारका माना गया है ॥११९॥ पूर्व देहके विनाशसे देहधारियोंके अन्यभवमें जो अन्य शरीरकी प्राप्ति होती है,उसे शरीरजन्म जानना चाहिए ॥१२०॥इसीप्रकार क्रियाओंके संस्कारयोगसे आत्मलाभ करनेवाले जीवके जो द्विजपनाकी प्राप्ति
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