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________________ महापुराणान्तर्गत श्रावकधर्म-वर्णन शरीरमरणं स्वायुरन्ते देह विसर्जनम् । संस्कारमरणं प्राप्तव्रतस्यागः समुज्झनम् ।। १२२ तोsयं लब्धसंस्कारो विजहाति प्रगेतनम् । मिथ्यादर्शनपर्यायं ततस्तेन मृतो भवेत् ॥ १२३ तत्र संस्कार जन्मेदमपापोपहतं परम् । जातं नो गुर्वनुज्ञानादतो देवद्विजा वयम् ।। १२४ इत्यात्मनो गुणोत्कर्ष ख्यापयन्यायवर्त्मना । गृहमेधी भवेत् प्राप्य सद्गृहित्वमनुत्तरम् ।। १२५ भूयोऽपि संप्रवक्ष्यामि ब्राह्मणान् सत्क्रियोचितान् । जातिवादावलेपस्य निरासार्थमतः परम् ॥ १२६ ब्रह्मणोऽपत्यमित्येवं ब्राह्मणाः समुदाहृताः । ब्रह्मा स्वयम्भूर्भगवान् परमेष्ठी जिनोत्तमः ।। १२७ सह्यादिपरमब्रह्मा जिनेन्द्रो गुणबृंहणात् । परं ब्रहा यदायत्तमामनन्ति मुनीश्वराः ॥ १२८ नैणाजिनधरो ब्रह्मा जटाकूर्चादिलक्षणः । यः कामगर्दभो भूत्वा प्रच्युतो ब्रह्मवर्चसात् ।। १२२ दिव्य मूर्त्ते जिनेन्द्रस्य ज्ञानगर्भादनाविलात् । समासादिजन्मानो द्विजन्मानस्ततो मताः ।। १३० वर्णान्तःपातिनां नते मन्तव्या द्विजसत्तमाः । व्रतमन्त्रादिसस्कार समारोपित गौरवाः ॥ १३१ वर्णोत्तमानि त्विद्मः क्षान्तिशौचपरायणान् । सन्तुष्टान् प्राप्तवैशिष्ट्यानक्लिष्टाचार भूषणान् । १३२ क्लिष्टाचारा: परे नैव ब्राह्मणाः द्विजमानिनः । पापारम्भरता शश्वदाहत्य पशुघातिनः ।। १३३ सर्वमेधभयं धर्ममभ्युपेत्य पशुधनताम् । का नाम गतिरेषां स्याद् पापशास्त्रोपजीविनाम् ।। १३४ चीदनालक्षणं धर्ममधर्म प्रतिजानते । ये तेभ्यः कर्मचाण्डालान् पश्यामो नापरान् भुवि ॥ १३५ होती हैं, वह संस्कारज जन्म कहलाता हैं ।। १२१ ।। अपनी आयुके अन्तमे देहका छूटना - शरीर मरण हैं और व्रतोंको प्राप्त पुरुषका पापोंको छोडना संस्कार मरण है ॥ १२२॥ संस्कारको प्राप्त हुआ पुरुष यतः पूर्वकी मिथ्यादर्शन पर्यायको छोडता हैं, अतः वह पूर्वपर्यायके त्यागकी अपेक्षा मरा हुआ ही जानना चाहिए । १२३॥ उन दोनों प्रकारके जन्मोंमेंसे पाप-रहित यह निर्दोष संस्कार जन्म हमें गुरुकी अनुज्ञासे प्राप्त हुआ हैं, अतः हम देवद्विज है ।। १२४ ।। इसप्रकार न्यायमार्ग से अपने गुणों का उत्कृर्ष प्रकट करता हुआ वह देवद्विज अनुपम सद्-गृहीत्व पदको पाकर सद्-गृहस्थ होता हैं ॥१२५॥ अब मैं इससे आगे ब्राह्मणों के जातिवादका मद दूर करने के लिए सत्क्रियाओंके करने योग्य ब्राह्मणोंको और भी कथन करता हूँ ।। १२६ ।। ब्रह्मणोऽपत्यं ब्राह्मणः '' 'इस निरुक्ति के अनुसार ब्रह्माकी सन्तान ब्राह्मण कहते है । जिनोत्तम परमेष्ठी स्वयम्भू भगवान् ब्रह्मा कहलाते हैं ।। १२७ ।। वे श्री जिनेन्द्रदेव ही आदि परम ब्रह्मा है, क्योंकि वे ही आत्मा के सम्यग्दर्शनादि गुणोंको बढाते हैं । मुनीश्वर-उत्कृष्ट ब्रह्म (ज्ञान) उन्हीं जिनेन्द्रदेव के अधीन मानते हैं ।। १२८ । किन्तु मृगचर्मका धारक, दाढी - जटादि रखनेवाला पुरुष ब्रह्मा नहीं माना जा सकता हैं, क्योंकि वह कामके वंश गर्दभ-मुख बनकर ब्रह्मचर्यरूप तेजसे परिभ्रष्ट हुआ हैं ।। १२९ । । इसलिए दिव्यमूर्तिवाले जिनेन्द्रदेव के निर्मल ज्ञानरूप गर्भसे जन्म प्राप्त करनेवाले व्यक्ति ही द्विजन्मा माने गये है ।। १३० ।। व्रत और मंत्रादिके संस्कारोंसे गौरवको प्राप्त करनेवाले इन श्रेष्ठ देवब्रह्माणोंको अन्तर्गत नहीं मानना चाहिए । अर्थात् ये सामान्य त्रिवर्णी जनोंसे उत्कृष्ट हैं ।। १३१ ।। हम तो उन्हें ही वर्णोत्तम ब्राह्मण मानते हैं जो क्षमाशौच आदि गुणों में परायण है, सन्तोषधारक है, और निर्दोष आचरणरूप आभूषणोंको धारण करनेसे विशिष्टताको प्राप्त है ॥१३२॥ किन्तु जो सदोष आचारवाले हैं, सदापापारम्भमें निरत रहते है और आग्रहपूर्वक पशुओंके घातक है, ऐसे द्विजाभिमानी लोक ब्राह्मण नही माने जा सकते है ॥१३३॥ सर्वहिंसामय धर्मको स्वीकार कर पशुओंके घातक और पापोपदेशी शास्त्रोंसे आजीविका करनेवाले इन द्विजाभिमानियोंकी मरकर न जाने कौन-सी गति होती ? ॥१३४॥ पशु-यज्ञकी प्रेरणा Jain Education International ६७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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