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महापुराणान्तर्गत श्रावकधर्म-वर्णन
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वर्णलाभोऽयमुद्दिष्टः कुलचर्याऽधुनोच्यते । आर्यषट्कर्मवृत्तिः स्यात् कुलचर्याऽस्य पुष्कला ।। ७२ इति कुलचर्यां ।
विशुद्धस्तेन वृत्तेन ततोऽभ्येति गृहीशिताम् । वृत्ताध्ययनसम्पत्त्या परानुग्रहणक्षमः । ७३ प्रायश्चित्तविधानज्ञः श्रुतिस्मृतिपुराणवित् । गृहस्थाचार्यतां प्राप्तः तदा धत्ते गृहीशिताम् ।। ७४ इति गृही शिता क्रिया ।
ततः पूर्ववदेवास्य भवेदिष्टा प्रशान्तता । नान विधोपवासादिभावना: समुपेयुषः ॥ ७५ इति प्रशान्तताक्रिया । गृहत्यागस्ततोऽस्य स्याद् गृहवासाद् विरज्यतः योग्यं सूनुं यथान्यायमनुशिष्य गहोज्ज्ञनम् ॥ ७६ गृहत्याग क्रिया |
त्यक्तागारस्य तस्य तस्तपोवनमुपेयुषः । एकशाटकधारित्वं प्राग्वद्दीक्षाद्यमिष्यते ॥ ७७ इति दीक्षाद्य क्रिया । ततोऽस्य जिनरूपत्वमिष्यते त्यक्तवाससः । धारणं जातरूपस्य युक्ताचाराद् गणेशिनः ॥ ७८ इति जिनरूपता ! क्रियाशेषास्तु निःशेषाः प्रोक्ता गर्भान्वये यथा । तथैव प्रतिपाद्याः स्युः न भेदोऽस्त्यत्र कश्चन ।। ७९ स्वेतास्तस्वतो ज्ञात्वा भव्यः समनुतिष्ठति । सोऽधिगच्छति निर्वाणमचिरात्सुखसाद्भवन् ।। ८० इति दीक्षान्वयक्रिया ।
अथातः सम्प्रवक्ष्यामि द्विजाः कर्त्रन्वयक्रियाः । या प्रत्यासन्नमिष्टस्य भवेयुर्भव्यदेहिनः ।। ८१ हवीं वर्णलाभ किया है । यह वर्णलाभ क्रिया कही । अब कुलचर्या कहते है - आर्यपुरुषोंके करने योग्य कुलागत - देवपूजादि षट्कर्मोका भली-भाँति पालन करना कुलचर्या कहलाती हैं । ७२ ।। यह चौदहवीं कुलचर्यां क्रिया है । तदनन्तर उन गृहीत व्रतोंसे विशुद्ध हुआ वह श्रावक गृहीशिता क्रियाको प्राप्त होता हैं। जब वह चारित्र और विद्याध्ययनरूपी सम्पत्तिसे अन्य लोगोंके अनुग्रह करमें समर्थ हो जाता हैं, प्रायश्चित्त विधानका ज्ञाता और श्रुति, स्मृति एवं पुराणका वेत्ता बन जाता है, तब वह गृहस्थाचार्यके पदको प्राप्त होकर गृहीशिता क्रियाको धारण करता है ।।७३-७४ ।। यह पन्द्रहवीं गृहीशिता किया हैं । तत्पश्चात् नाना प्रकारके उपवास आदिकी भावनाओंको प्राप्त होनेवाले उस गृहस्थाचार्य के पूर्व बणित प्रकारसे प्रशान्तता क्रिया मानी गई है ।। ७५ ।। यह सोलहवीं प्रशान्तता क्रिया हैं । तदन्तर गृह - वाससे विरक्त होनेवाले उस प्रशान्तबुद्धि श्रावकका योग्य पुत्रको न्याय्य नीति के अनुसार शिक्षादेकर घरको छोडना गृहत्याग क्रिया है ॥७६॥ यह सत्तरहवीं गृहत्याग किया है । इसके पश्चात् घरको छोडकर तपोवनको प्राप्त होनेवाले उस भव्यका पहले किये गये वर्णनके समान एक वस्त्रको धारण कर क्षुल्लकके व्रतोंको पालना दीक्षाद्यक्रिया कहलाती है ॥७७॥ यह अठारहवीं दीक्षाद्यक्रिया हैं। तदन्तर वस्त्रका त्याग कर योग्य आचारवाले गणस्वामी आचार्य से यथाजात दिगम्बररूपका धारण करना जिनरूपता क्रिया हैं ||७८|| यह उन्नीसवीं जिनरूपता किया हैं । इससे आगेकी जानेवाली शेष समस्त क्रियाओं का जिस प्रकारसे गर्भान्वय क्रियाओंमें वर्णन किया हैं, उसी प्रकार से करना आवश्यक हैं, क्योंकि इन आगेकी दीक्षान्वय क्रियाओंका उन गर्भान्वय क्रियाओं से कोई भेद नहीं हैं ||७९॥ | जो भव्य इन क्रियाओंको यथार्थ रीतिसे जानकर उनका भली-भाँति से पालन करता हैं, वह शीघ्र ही अनन्तसुखको आत्मसात् करता हुआ निर्वाणको प्राप्त होता है ।। ८०1t इस प्रकार दीक्षान्वय क्रियाओं का वर्णन पूर्ण हुआ । अब इससे आगे हे ब्राह्मणो, मैं उन कर्त्रन्वय
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