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________________ यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन मन्मथोन्माथितस्वान्तःपरस्त्रीरतिजातधीः । कडार पिङ्गः संकल्पानिपपात रसातले । ३९७ ममेदमिति संकल्पो गह्याभ्यन्तरवस्तुषु । परिग्रहो मतस्तत्र कुर्याच्चेतोनिकुञ्चनम् ॥ ३९८ क्षेत्रं धान्यं धनं वास्तु कुप्यं शयनमासनम् । द्विपदाः पशवो भाण्डं बाह्या दश परिग्रहा: ॥३९९ समिथ्यात्वास्त्रयो वेदा हास्यप्रभृतयोऽपि षट् । चत्वारश्च कषायाः स्युरन्तर्ग्रन्याश्चतुर्दश ।। ४०० अथवा-चेनाचेतनासङ्गाद्विधा बाह्यपरिग्रहः । अन्त स एक एव स्याद्भवहेत्वाशयाश्रयः ॥ ४०१ धनायाविद्धबुद्धीनामधनाः स्युमनोरथाः । ह्यनर्थक्रियारम्भा धीस्तथिषु कामधुक ।। ४०२ सहसंमतिरप्येष देहो यत्र न शाश्वतः । द्रव्यदारकदारेषु तत्र काऽऽस्था महात्मनाम् ॥ ४०३ स श्रीमानपि निःश्रीक: स नरश्च नराधमः । यो न धर्माय भोगाय विनयेत धनागमम् ।। ४०४ प्राप्तेऽर्थे ये न माद्यन्ति नाप्राप्ते स्पहयालयः । लोकद्वयश्रितां श्रीणां त एव परमेश्वराः ।। ४०५ चित्तस्य वित्तचिन्तयां न फलं पर मेनसः । अस्थाने क्लिश्यमानस्य न हि क्लेशात्परं फलम् ।। ४०६ अन्तर्बहिर्गते सगे निःसङ्ग यस्य मानसम् । सोऽगण्य पुण्य संपन्नः सर्वत्र सुखमश्नुते ॥ ४०७ बाह्यसङ्गरते पुंसि कुतश्चित्तविशुद्धता । सतुषे हि बहिन्यि दुर्लभान्तविशुद्धता॥४०८ सत्पात्रविनियोगेन योऽर्थसंग्रहतत्परः । लब्धेषु स परं लुब्ध: सहामत्र धनं नयन् ।।४०९ कामसे पीडित और परस्त्री संभोगके लिए उत्सुक कडार-पिङग परस्त्रीगमनके संकल्पसे नरकमें गया । ॥३९७।। इसकी कथा मूल ग्रन्थसे अथवा प्रथमानुयोगसे जानना चाहिए। (अब परिग्रह परिमाण व्रतको कहते हैं-) बाह्य और आभ्यन्तर वस्तुओंमें यह मेरी है' इस प्रकारके संकल्पको परिग्रह कहते हैं। उसके विषयमें चित्तवृत्तिको संकुचित करना चाहिए अर्थात् संकल्पको घटाकर परि पहका परिमाण करना चाहिए ॥३९८॥ खेत, अनाज, धन, मकान, ताँबा-पीतल आदि धातु. शय्या, आसन, दास-दासी, पशु और भाजन ये दस बाह्य परिग्रह है ।। : ९९।। मिथ्यात्व, पुरुषवेद, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, शोक, रति, अरति, भय, जुगुप्सा, क्रोध, मान, माया और लोभ ये चौदह अन्तरङग परिग्रह हैं ॥४००॥ अथवाचेतन और अचेतनके भेदसे बाह्य परिग्रह दो प्रकारका है, और संसारके कारणभूत कर्माशयकी अपेक्षा अन्तरङग परिग्रह एक ही प्रकारका हैं ।४०१॥ जो धनकी वाञ्छा करते रहते हैं उनके मनोरथ सफल नहीं होते ; क्योंकि वाञ्छा करने मात्रसे इच्छित वस्तुकी प्राप्ति नहीं होती ॥४०२।। जहाँ साथ पैदा होनेवाला शरीर भी स्थायी नहीं है वहाँ शरीरसे भिन्न धन, स्त्री और पुत्र में महात्माओंकी आस्था कैसे हो सकती है? ॥४०३।। वह मनुष्य धनी होकर भी गरीब है तथा मनुष्य होकर भी मनष्योंमें नीच हैं जो धनको न धर्म में लगाता है और न भोगता है।।४०४।। जो धनको पाकर मद नहीं करते और धनके न मिलने पर उसकी इच्छा नहीं करते, वे ही इस लोक और परलोकमें लक्ष्मीके स्वामी होते है ।।४० ।। मनमें धनकी चिन्ता करनेका फल पापके सिवाय और कुछ नहीं हैं । ठीक ही है अस्थानमें क्लेश करनेके क्लेशके अतिरिक्त और क्या फल हो सकता हैं ।।४०६॥ अन्तरङग और बाह्य परिग्रहमें जिसका मन अनासक्त हैं वह महान् पुण्यशाली सर्वत्र सुख भोगता हैं। ४०७। जो पुरुष बाह्य पहिग्रहमें आसक्त हैं उसका मन कैसे विशुद्ध हो सकता है? ठीक ही हैं, जो धान्य तुष-छिलके सहित है उसके भीतरी भागका स्वच्छ पाया जाना दुर्लभ हैं।॥४०८।। भावार्थ- जब धानको कूटकर उसका छिलका अलग कर दिया जाता है तभी साफ चावल निकलता है। छिलकेके रहते हुए उसके अन्दरका चावल भी लाल ही रहता है। वैसे ही बाह्य परिग्रहमें आसक्त रहते हुए मनुष्य का मन स्वच्छ नहीं होता। जो सत्पात्रको दान देकर धन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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