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________________ १७० श्रावकाचार-संग्रह कृतप्रमाणाल्लोभेन धनादधिकसंग्रहः । पञ्चमाणुव्रतज्यानि करोति गृहमेधिनाम् ।। ४१० यस्य द्वन्द्वद्वयेऽप्यस्मिन्निःस्पृहं देहिनो मनः । स्वर्गापवर्गलक्ष्मीणां क्षणात्पक्षे स दक्षते ॥ ४११ अत्यर्थमर्थकाङ्क्षायामवश्यं जायते नृणाम् । अघसंघचितं चेतः संसारावर्तवर्तगम् ।। ४१२ षष्ठया: क्षितेस्तृतीयेऽस्मिल्लल्लके दुःखमल्लके । पेते पिण्याकगन्धेन धनायाविद्धचेतसा ।। ४१३ दिग्देशानर्थदण्डानां विरतिस्त्रितयाश्रयम् । गुणवतत्रयं सद्भिः सागारयतिष स्मृतम् ।। ४१४ दिक्षु सर्वास्वधःप्रोर्ध्वदेशेषु निखिलेषु च । एतस्यां दिशि देशेऽस्मिन्नयत्येवं गतिर्मम ।। ४१५ दिग्देशनियमादेवं ततो बाह्येष वस्तुषु । हिंसालोभोपभोगादिनिवृत्तेश्चित्तयन्त्रणा ।। ४१६ रक्षन्निदं प्रयत्नेन गुणवतत्रयं गृही । आजैश्वर्य लभैश्वर्य लभेतैष यत्र यत्रोपजायते ॥ ४१७ आशादेशप्रमाणस्य गृहीतस्य व्यतिक्रमात् । देशव्रती प्रजायेत प्रायश्चित्तसमाश्रयः ।। ४१८ शिखण्डिकुक्कुटश्येन बिडालव्यालबभ्रवः । विषकण्टकशस्त्राग्निकषापाशकरज्जव: ।। ४१९ का संग्रह करने में तत्पर है,वह उस धनको परलोकमें अपने साथ ले जाता हैं । अतः वह लोभियोंमें परम लोभी है ॥४०९।। भावार्थ-जो अपने धनको सत्पात्रोंके लिए खर्च करता हैं वह असीम पूण्यका बन्ध करता है और उस पुण्यको, जो धन-प्राप्तिका मूल कारण हैं,वह अपने साथ परलोकमें ले जाता है । उसके प्रभावसे उसे उस जन्ममें भी धनका लाभ होता हैं । अतः ऐसा आदमी ही सच्चा धनका लोभी हैं। किन्तु जो धनको ही समेटकर रखता हैं-न उसे भोगता हैं और न किसीको देता है वह तो उसे यहीं छोड जाता है । अतः सत्पात्रमें धनको खरचना ही उत्तम हैं। और पुण्यरूपी धन ही सच्चा धन हैं । जिसने धनका प्रमाण किया हैं,लोभमें आकर उससे अधिकका संचय करना गृहस्थोंके परिग्रह परिमाणव्रतको हानि पहुंचाता है । अर्थात् यह उस व्रतका अतिचार हैं ।।४१०॥ जिस प्राणी का मन अन्तरङग और बहिरङग परिग्रहमें निस्पृह हैं वह क्षणभरमें स्वर्ग और मोक्षकी लक्ष्मीका स्वामी बन जाता हैं ॥४११।। धनकी बहुत अधिक तृष्णा होनेपर मनुष्योंका मन पापके भारसे दबकर संसाररूपी भँवरके गङढेमें चला जाता है ।।४१२।। 'धनका भूखा पिण्याक गंध मरकर छठे नरकके लल्लक नामके तीसरे पाथडे में गया ॥४१३।। इसकी कथा मूल ग्रन्थसे अथवा प्रथमानुयोगसे जानना चाहिए ।। अब गुणव्रतोंका वर्णन करते हैं-महापुरुषोंने दिविरति देशविरति और अनर्थदण्ड-विरतिके भेदसे गृहस्थ व्रतियोंके तीन गुणब्रत बतलाये हैं ॥४१४।। 'अमुक-अमुक दिशामें मै अमुक-अमुक स्थान तक ही जाऊँगा" इस प्रकार जन्म पर्यन्त के लिए जो सब दिशाओंमें और ऊपर तथा नीचे जानेकी मर्यादाकी जाती है उसे दिग्विरतिव्रत कहते है । और दिग्विरतिके भीतर कुछ समयके लिए जो मर्यादा जाती हैं कि मै अमुक दिशामें अमुक देश तक ही जाऊँगा, उसे देशविरति व्रत कहते हैं ॥४१५।। इस प्रकार दिशाओंका और देशका नियम कर लेनेसे उससे बाहरकी वस्तुओं में लोभ, उपभोग और हिंसा आदिके भाव नहीं होते है और उसके न होनेसे चित्त संयत होता है ॥४१६।। जो गृहस्थ प्रयत्न करके इन तीन गुणवतोंका पालन करता हैं वह जहाँ-जहाँ जन्म लेता है वहीं-वहीं उसे ऐश्वर्य और हुकूमत मिलती हैं ॥४१७।। दिशा और देशके किये हुए प्रमाणका उल्लंघन करनेसे अर्थात् उससे बाहर चले जानेसे दिग्वती और देशव्रती प्रायश्चित्तका भागी होता हैं ।।४१८॥ (अब तीसरे अनर्थदण्डविरति व्रतको कहते हैं-) मोर, मुर्गा, बाज, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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