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________________ यशस्तिलकचम्पूगत - उपासकाध्ययन पापाख्यानाशु माध्यानहिंसाक्रीडावृथाक्रिया: परोपतापपैशून्यशोक। क्रन्दन कारिता ।। ४२० बधबन्धन संरोध हेतवोऽन्येऽपि चेदृशाः । भवन्त्यनर्थदण्डाख्याः संपरायप्रवर्धनात् ।। ४२१ पोषणं क्रूर सत्त्वानां हिमोपकरणक्रियाम् । देशव्रती न कुर्वीत स्वकीयाचारचारुधीः ।। ४२२ अनर्थदण्डनिर्मोक्षादवश्यं देशतो यतिः । सुहृत्तां सर्वभूतेषु स्वामित्वं च प्रपद्यते ॥ ४२३ वञ्चनारम्भहिसानामुपदेशात्प्रवर्तनम् । भाराधिक्याधिकक्लेशौ तृतीयगुणहानये ॥। ४२४ इति श्री सोमदेवसूरिविरचित उपासकाध्ययने सच्चरित्र चिन्तामणिनाम सप्तम आश्वासः । अष्टम आश्वास: आदी सामायिकं कर्म प्रोषधोपासनक्रिया । सेव्यार्थनियमो दानं शिक्षा व्रतचतुष्टयम् ।। ४१५ आप्तसेवोपदेशः स्यात्समयः समयार्थिनाम् । नियुक्तं तत्र यत्कर्म तत्सामायिकमूचिरे ॥ ४२६ आप्तस्यासन्निधानेऽपि पुण्यायाकृतिपूजनम् । तार्क्ष्यमुद्रा न किं कुर्याद्विषसा मसूदनम ।। ४२७ अन्तःशुद्ध बहिःशुद्धि विदध्याद्देवतार्चने । आद्या दोश्चित्यनिर्मोक्षादन्या स्नानाद्यथाविधिः ॥ ४२८ बिलाव, साँन, नेवला, आदि हिंसक जन्तुओंका पालना, विष, काँटा, शस्त्र, आग, कोडा, जाल, रस्सा आदि हिंसा के साधन दूसरों को देना, पापका उपदेश देना, आर्त और रौद्र ध्यानका करना, हिंसामयी खेल खेलना, व्यर्थ इधर-उधर भटकना, दूसरोंको कष्ट पहुंचाना, चुगली करना, रंज करना, रोना, अन्य भी इस प्रकारके कार्य जो दूसरोंके घातमें बाँधने में और रोक रखने में कारण हैं उन्हें अनर्थदण्ड कहते है; क्योंकि उनसे संसारकी वृद्धि होती हैं - बहुत समय तक संसार में भटकना पडता हैं ।।४१९-४२१ ।। अपने आचारका पालन करनेमें दक्ष देशव्रती श्रावकको हिंसक प्राणियों का पोषण तथा हिंसाके उपकरणोंका दान नहीं करना चाहिए || ४२२|| ऊपर बतलाये हुए अनर्थदण्डोंको छोडनेसे अणुव्रती श्रावक सब प्राणियोंका मित्र और स्वामी बन जाता हैं ॥४२३|| उपदेशसे ठगी, आरम्भ, और हिंसाका प्रवर्तन करना, शक्ति से अधिक बोझा लादना और दूसरों को अधिक कष्ट देना आदि कर्म अनर्थदण्डव्रतको हानि पहुँचाते है, अर्थात् इस प्रकारके कामोंके करनेसे अनर्थदण्डव्रत में दोष लगता हैं अतः ऐसे काम अणुव्रती श्रावकको नहीं करना चाहिए ॥ ४२४ इस प्रकार सोमदेव सूरि विरचित उपासकाध्ययनमें सच्चरित्रचिन्तामणि नामका सातवां आश्वास समाप्त हुआ । अष्टम आश्वास ( अब शिक्षाव्रतों को कहते है - ) सामायिक, प्रोषधोपवास, भोगोपभोग - परिमाण और दान ये चार शिक्षाव्रत है || ४२५|| जिनेन्द्र भगवान्‌की पूजा करनेका जो उपदेश है उसे समय कहते है और उसमें उसके इच्छुकजनोंके जो-जो काम बतलाये गये हैं उन्हें सामायिक कहते हैं ।। ४२६ ।। जिनेन्द्र भगवान् के अभाव में उनकी प्रतिमाका पूजन करनेसे भी पुण्यबन्ध होता है । क्या गरुड - मुद्रा विषकी शक्तिको दूर नहीं करती ? ||४२७|| देवपूजन करने के लिए अन्तरङगशुद्धि और बहिरङ्गशुद्ध करनी चाहिए । चित्तसे बुरे विचारोंको दूर करनेसे अन्तरङगशुद्धि होती Jain Education International १७१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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