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________________ १७२ श्रावकाचार-संग्रह संभोगाय विशुद्धयर्थ स्नानं धर्माय च स्मृतम् । धर्माय तद्भवेत् स्नानं यत्रामुत्रोचितो विधिः।।४२९ नित्यस्नानं गृहस्थस्य देवार्चनपरिग्रहे । यतेस्तु दुर्जनस्पर्शात्स्नानमन्य द्विहितम् ॥ ४३. वातातपादिसंसृष्टे भूरितोये जलाशये । अवगाह्याचरेत्स्नानमतोऽन्यद्गालितं भजेत् ॥ ४३१ पादजानकटिग्रीवाशिरःपर्यन्तसंश्रयम् । स्नानं पञ्चविधं ज्ञेयं यथादोषं शरीरिणाम् । ४३२ ब्रह्मचर्योपपन्नस्य निवृत्तारम्भकर्मणः । यद्वा तद्वा भवेत्स्नानमन्त्यमन्यस्य तद्वयम् ।। ४३३ सारम्भवितम्भस्य ब्रह्मजिह्यस्य देहिनः । अविधाय बहिःशुद्धि नाप्तोपास्त्यधिकारिता ।। ४३४ अद्भिः शुद्धि निराकुर्वन्मन्त्रमात्रपरायणः । स मन्त्रैः शुद्धिमाङ् नूनं भवत्वा हत्त्वा विहृत्य च ।।४३५ मृत्स्नयेष्टकया वापि भस्मना गोमयेन च । शौचं तावत्प्रकुर्वीत यावनिर्मलता भवेत् ।। ४३६ बहिविहृत्य संप्राप्तो नानाचम्य गृहं विशेत् । स्थानान्तरात्समायातं सर्व प्रोक्षितमाचरेत् ॥४३७ आप्लुतः सप्लुतस्वान्तः शुचिवासोविभूषितः । मौनसंयमसम्पन्नः कुर्याद्देवाचंना विधिम् ।। ४३८ दन्तधावनशुद्धास्यो मुखवासोचितानन: । असंजातान्य पंसर्गः सुधीर्देवानपाचरेत् ।। ४३९ होमभूतबली पूर्वैरुक्ती भक्तविशुद्धये । भुक्त्यादौ सलिलं सपिरूधस्यं च रसायनम् ।। ४४० एतद्विधिन धाय नाधाय तदक्रिया: । दुर्भपुष्पाक्षतश्रोत्रवन्दनादिविधानवत् ।। ४४१ हैं और विधिपूर्वक स्नान करनेसे बहिरङगशुद्धि होती है ॥४२८॥ संभोगके लिए, विशुद्धिके लिए और धर्मके लिए स्नान करना बतलाया हैं। जिसमें परलोकके योग्य विधि की जाती है वह स्नान धर्मके लिए होता हैं ॥४२९॥ देवपूजा करनेके लिए गृहस्थको सदाको स्नान करना चाहिए । और मुनिको दुर्जनसे छू जानेपर ही करना चाहिए । अन्य स्नान मुनिके लिए वजित हैं ।।४३०॥ जिस जलाशयमें खूब पानी हो और वायु,धूप आदि जिसे खूब लगती हो उसमें घस करके स्नान करना उचित है, किन्तु अन्य जलाशयोंका पानी छानकर ही स्नानके काममें लाना चाहिए ।।४३१।। स्नान पाँच प्रकारका होता हैं -पैर तक, कमर तक, घुटनोतक गर्दन तक और सिर तक । इनमेंसे मनुष्योंको दोषके अनुसार स्नान करना चाहिए ।।४३२।। जो ब्रह्मचारी है और सब प्रकारके आरम्भोंसे विरत है वह इनमें से कोई-सा भी स्नान कर सकता है किन्तु अन्य गृहस्थोंको तो सिर या गर्दनसे ही स्नान करना चाहिए ।।४३३।। जो सब प्रकारके आरम्भोंमें लगा रहता है और ब्रह्मचारी भी नहीं है, उसे बाह्य शुद्धि किये बिना देवोपासना करने का अधिकार नहीं हैं।। ४३४।। जो जलसे शुद्धिका निराकरण करता हुआ केवल मन्त्रपाठमें ही तत्पर रहता हैं, उसे भोजन करके, टट्टी जाकर और विहार करके निश्चय ही मन्त्रोंके द्वारा शुद्ध हो जाना चाहिये । ४:५।। अत: मिट्टीसे ईंटसे अथवा राखसे या गोबरसे तबतक सफाई करनी चाहिए जबतक निर्मलता न आ जाये ॥४३६।। जब बाहरसे घूमकर आये तो बिना कुल्ल। किये घरमें नहीं जाना चाहिए । दूसरी जगहसे आयी हुई सब वस्तुओंको पानी छिडककर ही काममें लाना चाहिए 1.४३७॥ स्नान करके, शुद्ध वस्त्र पहने और चित्तको वशमें करके मौन तथा संयमपूर्वक जिनेन्द्र देवकी पूजा करे ।।४३८ दातौनसे मुख शुद्ध करे और मुखपर वस्त्र लगाकर दूसरोंसे किसी तरहका सम्पर्क न रखकर जिनेन्द्र देवकी पूजा करे ।।४३९।। पूर्व पुरुषोंने भोजनकी शुद्धि के लिए भोजन करनेसे पहले होम और भतबलिका विधान किया है । भोजन करनेसे पहले होम पूर्वक अर्थात् प्राणियोके उद्देश्यसे कुछ अन्न अलग निकालकर रख देना चाहिए। तथा भोजनके पहले पानी, घी और दूधके सेवनको रसायन कहा है । कुश, पुष्प, अक्षत, स्तवन, वन्दना आदिके विधानकी तरह उक्त विधि करनेसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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