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________________ १६८ श्रावकाचार-संग्रह बहिस्तास्ताः क्रियाः कुर्वनरः संकल्पजन्मवान् भावाप्तावेव निर्वाति क्लेशस्तत्राधिकः परम् ।। ३८५ farari कामकामात्मा तृतीया प्रकृतिर्भवेत् । अनन्तवीर्यपर्यायस्तस्यानारतसेवने ॥ ३८६ सर्वा क्रियानुलोमा स्यात्फलाय हितकामिनाम् । अपरत्रार्थकामाभ्यां यत्तो नस्तां तदर्थषु ।। ३८७ क्षयामयसमः कामः सर्वदोषोदयद्युतिः । उत्सूत्रे तत्र मर्त्यानां कुतः श्रेयः समागमः ।। ३८८ देहद्रविणसंस्कारसमुपार्जनवृत्तयः । जितकामे वृथा सर्वास्तत्कामः सर्वदोषभाक् ।। ३८९ स्वाध्यायध्यानधर्माद्या: क्रियास्तावन्नरे कुतः । इद्धे चित्तेन्धने यावदेष कामाशुशुक्षणिः ।। ३९० ऐदम्पर्यमतो मुक्त्वा भोगानाहारवद्भजेत् । देहदाहोपशान्दर्थमभिध्यानविहानये ।। ३९१ परस्त्रीसंगमानङ्गक्रीडान्योपयमक्रियाः । तीव्रतारतिकैतव्यं हन्युरेतानि तद् व्रतम् ।। ३९२ मद्यं द्यूतमुपद्रव्यं तौर्यत्रिकमलंक्रियाः । मदो विटा वृथाटयेति दशधानङ्गजो गणः ।। ३९३ हिंसनं साहमं द्रोह: पौरो भाग्य यंदूषणं । ईर्ष्या वाग्दण्डपारुष्यकोपजः स्याद् गणोऽष्टधा ।। ३९४ ऐश्वर्येौदार्यशौण्डीर्य सौन्दर्यवीर्यवीर्यता । लभेताद्भुत सञ्चाराश्चतुर्थव्रत पूतधीः ॥ ९५ अनङ्गानलसलीढे परस्त्रीरतिचेतसि । सद्यस्का त्रिपदो ह्यत्र परत्र च दुरास्पदाः ।। ३९६ नाना प्रकार की बाह्य क्रियाओंको करता हुआ कामी मनुष्य रति सुखके मिलने पर ही सुखी होता है । किन्तु इसमें क्लेश ही अधिक होता हैं सुख तो नाम मात्र है ।। ३८५ ।। जो अत्यन्त कामासक्त होता हैं वह निरन्तर कामका सेवन करनेसे नपुंसक हो जाता हैं और जो निरन्तर ब्रह्मचर्य का पालन करता हैं वह अनन्त वीर्यका धारी होता है ॥ ३८६ ।। जो अपना हित चाहते हैं उनकी सब अनुलोम क्रियाएँ फलदायक होती है । किन्तु अर्थ और कामको छोडकर | क्योंकि जो अर्थ और कामकी अभिलाषा करते हैं उन्हें अर्थ और कामकी प्राप्ति नहीं होती, अत: उन्हें अर्थ और कामकी प्राप्ति होने पर भी सदा असन्तोष ही रहता है ।। ३८७ ।। काम क्षय रोगके समान सब दोषों को उत्पन्न करता है । उसका आधिक्य होने पर मनुष्योंका कल्याण कैसे हो सकता हैं? ||३८८|| जिसने कामको जीत लिया उसका देहका संस्कार करना, धन कमाना आदि सभी व्यापार व्यर्थ है; क्योंकि काम ही इन सब दोषोंकी जड हैं ।। ३८९ ।। जबतक चित्तरूपी ईंधन में यह कामरूपी आग धधकती हैं तबतक मनुष्य स्वाध्याय, ध्यान, धर्माचरण आदि क्रिया कैसे कर सकता हैं? ।। ३९०1। अतः कामुकताको छोडकर शारीरिक सन्तापकी शान्तिके लिए और विषयोंकी चाहको कम करने के लिए आहारके समान भोगोंका सेवन करना चाहिए || ३९१ || परायी स्त्रीके साथ संगम करना, काम सेवनके अंगोंसे भिन्न अंगोंमें कामक्रीडा करना, दूसरोंके लडकीलडकों का विवाह कराना, कामभोगकी तीव्र लालसाका होना और विटत्व, ये बातें ब्रह्मचर्यव्रतको घातनेवाली हैं ।। ३९२ ॥ शराब, जुआ, मांस, मधु, नाच, गाना और वादन, लिंगपर लेप वगैरह लगाना, शरीर को सजाना, मस्ती, लुच्चापन और व्यर्थ भ्रमण, ये दस कामके अनुचर हैं ||३९३॥ हिंसा, साहस, मित्रादिके साथ द्रोह, दूसरोंके दोष देखने का स्वभाव, अर्थदोष अर्थात् न ग्रहण करने योग्य धनका ग्रहण करना, और देयधनको न देना, ईर्ष्या, कठोर वचन बोलना और कठोर दण्ड देना ये आठ को अनुचर हैं ।। ३९४ ।। ब्रह्मचर्याशुव्रती अद्भुत ऐश्वर्य, अद्भुत उदारता, अद्भुत शूर-वीरता, अद्भुत धीरता, अद्भुत सौंन्दर्य और अद्भुत शक्तिको प्राप्त करता हैं || ३९५ ।। जिसका कामरूपी अग्निसे वेष्टित चित्त पर-नारीसे रति करने में आसक्त हैं उसे इसी जन्म में तत्काल विपत्तियाँ उठानी पडती है और परलोक में भी कठोर विपत्तियों का सामना करना पड़ता है ॥ ३९६ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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