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यशस्तिलकचम्पूगत - उपासकाध्ययन
तर्षेर्ष्याम हर्षाद्यैर्मृषाभाषामनीषितः जिव्हाच्छेदमवाप्नोति परत्र च गतिक्षतिम् ।। ३७४ अल्पैरपि समर्थ: स्यात्सहायैविजयी नृपः । कार्यायान्तो हि कुन्तस्य दण्डस्त्वस्य परिच्छदः || ३७५ न व्रतमस्थिग्रहणं शाकवयोमूलभैक्षचर्या वा । व्रतमेतदुन्नतधियामङ्गीकृतवस्तुनिर्वहणम् ॥ ३७६ अस्थाने बद्धकक्षाणां नराणां सुलभं द्वयम् । परत्र दुर्गतिदर्घा दुष्कीतिश्चात्र शाश्वती ।। ३७७ मृषोद्यादीनवोद्योगात्पर्वतेन समं वसुः । जगाम जगतीमूलं ज्वलदातङ्कपावकम् ।। ३७८ वधूवित्तस्त्रियो मुक्त्वा सर्वत्रान्यत्र तज्जते । माता स्वसा तनूजेति मतिर्ब्रह्म गृहाश्रमे ।। ३७९ धर्मभूमी स्वभावेन मनुष्यो नियतस्मरः । यज्जात्यैव पराजातिबन्धुलिङ्गिस्त्रियस्त्यजेत् ।। ३८० रक्ष्यमाणे हि बृंहन्ति यत्राहिंसादयो गुणाः । उदाहरन्ति तद्ब्रह्म ब्रह्मविद्याविशारदाः ।। ३८१ मदनोद्दीपने वृत्तं मदनोद्दीपनं रसैः । मदनोद्दीपनंः शास्त्रैर्मदमात्मनि नाचरेत् ।। ३८२ हव्यैरिव हुतप्रीति: पाथोभिरिव नीरधिः तोषमेति पुमानेष न भोगेर्भवसंभवः ।। ३८३ विषवद्विषयाः पुंसामापाते मधुरागमा: । अन्ते विपत्तिफलदास्तत्सतामिह को ग्रहः ॥ ३८४
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वचनकी सिद्धि प्राप्त होती हैं । जहाँ-जहाँ वह जो कुछ कहता है उसकी वाणीका आदर होता हैं || ३७३ ॥ | इसके विपरीत जो तृष्णा, ईर्ष्या, क्रोध या हर्ष वगैरह के वशीभूत होकर झूठ बोलता हैं उसकी जिव्हा कटवा दी जाती हैं और परलोकमें भी उसकी दुर्गति होती हैं ।। ३७४ | शक्तिशाली थोडेसे भी सहायकों के द्वारा राजा विजयी होता है । जैसे भालेकी नोक ही अपना काम करती है, उसमें लगा डंडा तो उसका सहायक मात्र हैं ।। ३७५ । हड्डीका धारण करना, शाक, पानी, कन्दमूलका लेना अथवा भिक्षा भोजन करना ये सब ब्रत नहीं हैं । किन्तु स्वीकार की हुई वस्तुको निबाहना ही समझदार पुरुषोंका व्रत हैं ||३७६ | 'झूठी बातका दुराग्रह करनेवाले मनुष्योंके लिए दो चीज सुलभ है - परलोकमें दीर्घकाल तक दुर्गति और इस लोक में स्थायी अपयश' | ॥ ३७७ ॥ इसके विषयमें एक श्लोक हैं- 'झूठ बोलनेके दोष के कारण पर्वतके साथ वसु भी सातवें नरकको गया, जहाँ सदा संतापरूपी अग्नि जलती रहती हैं । ३७८ ॥ अब ब्रह्मचर्या व्रतका वर्णन करते हैं - अपनी विवाहिता स्त्री और वित्त स्त्री के सिवाय अन्य सब स्त्रियोंको अपनी माता, बहिन और पुत्री मानना ब्रह्मचर्याणुव्रत हैं ||३७९ ॥ विशेषार्थ - सब श्रावकाचारों में विवाहिता के सिवाय स्त्री मात्रके त्यागीको ब्रह्मचर्याणुव्रती बतलाया है । परनारी और वेश्या ये दोनों ही त्याज्य है । किन्तु पं. सोमदेवजीने अणुव्रती के लिए वेश्याकी भी छूट दे दी हैं । न जाने यह छूट किस आधारसे दी गई है ? धर्मभूमि आर्यखण्ड में स्वभावसे ही मनुष्य कम कामी होते हैं । अत: अपनी जातिकी विवाहित स्त्रीसे ही सम्बन्ध करना चाहिए और अन्य जातियोंकी तथा बन्धु-बांधवोंकी स्त्रियोंसे और व्रती स्त्रियोंसे सम्बन्ध नहीं करना चाहिए || ३८०|| जिसकी रक्षा करने पर अहिंसा आदि गुणोंमें वृद्धि होती है उसे ब्रह्मविद्यामें निष्णात विद्वान् ब्रह्म कहते है ||३८१|| अतः कामोद्दीपन करनेवाले कार्योंसे, कामोद्दीपन करनेवाले रसोंके सेवन से और कामोद्दीपन करनेवाले शास्त्रोंके श्रवण या पठनसे अपनेमें कामका मद नहीं लाना चाहिए | ३८२ ॥ जैसे हवनकी सामग्री से अग्नि और जलसे समुद्र कभी तृप्त नहीं होते । वैसे ही यह पुरुष सांसारिक भोगों से कभी तृप्त नहीं होता ।। ३८३ ॥ | ये विषय विषके तुल्य हैं। जब आते हैं तो प्रिय लगते है किन्तु अन्त में विपत्तिको ही लाते है । अतः सज्जनका इन विषयोंमें आग्रह कैंसे हो सकता है।। ३८४ ॥
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