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________________ श्रावकाचार - संग्रह अस्येदमंदं पर्यम्-असत्यमपि किचित्सत्यमेव यथान्धांसि रन्धयति वयति वासांसीति । सत्यमप्यसत्यं किचिद्यथार्धमासत मे दिवसे तवेदं देयमित्यास्थाय मासतमे संवत्सरमे वा दिवसे ददातीति । सत्यसत्यं किचिद्यद्वस्तु यद्देशकालाकारप्रमाणं प्रतिपन्नं तत्र तथैवाविसंवादः । असत्या त्सत्यं किंचित्स्वस्यासत्संगिरते कल्ये दास्यामीति । तुरीयं वर्जयेत्रित्यं लोकयात्रा त्रये स्थिता । सा मिथ्यापि न गीमिथ्या या गुर्वादिप्रसादिनी ॥ ३६७ न स्तूयादात्मनात्मानं न परं परिवादयेत् । न सतोऽन्यगुणान् हिस्यान्नासतः स्वस्य वर्णयेत् ॥ ३६८ तथा कुर्वन्प्रजायेत नीचंर्गोत्रोचितः पुमान् । उच्चैर्गोत्रमवाप्नोति विपरीतकृतेः कृती । ३६९ यत्परस्य प्रियं कुर्यादात्मनस्तत्प्रियं हि तत् । अतः किमिति लोकोऽयं परः प्रियपरायण ।। ३७० यथा यथा परेष्वेतच्चेतो वितन्ते तमः । तथा तथात्मनाडीषु तमोधारा निषिञ्चति ।। ३७१ दोषतोयैर्गुणग्रीष्मः संगन्तृणि शरीरिणाम् । भवन्ति चित्तवासांसि गुरूणि च लघूनि च ।। ३७२ सत्यवाक् सत्यसामर्थ्याद्वचः सिद्धि समश्नुते । वाणी चास्य भवेन्मान्या यत्र यत्रोपजायते ।। ३७३ १६६ असत्य होता है ।। ३६६ ।। इसका यह अभिप्राय है कि कोई वचन असत्य होते हुए भी सत्य होता है, जैसे- ' भात पकाता हैं, या कपडा बुनता है'। ये वचन यद्यपि असत्य है क्योंकि न भात पकाया जाता हैं और कपडा बुना जाता हैं किन्तु पके हुए को भात कहते है, और बुन जानेपर कपडा कहलाता हैं, फिर भी लोकव्यवहारमें ऐसा ही कहा जाता हैं इसलिए इस तरहके वचनोंको सत्य मानते हैं। इसी तरह कोई वचन सत्य होते हुए भी असत्य होता हैं । जैसे- किसीने वादा किया कि पन्द्रह दिन मै तुम्हें अमुक वस्तु दे दूंगा । किन्तु पन्द्रवें दिन न देकर वह एक मास में या एक वर्ष में देता है । यहाँ चूंकि उसने वस्तु दे दी इसलिए उसका कहना सत्य हैं किन्तु समयपर नहीं दी इसलिए सत्य होते हुई भी असत्य हैं । जो वस्तु जिस देशमें, जिस कालमें, जिस आकार में और जिस प्रमाणमें जानी हैं उसको उसी रूपमें कहना सत्य सत्य है । जो वस्तु अपने पास नहीं हैं उसके लिए ऐसा वचन देना कि मैं तुम्हें कल दूंगा असत्य वचन हैं । इनमेंसे चौथे असत्य असत्य वचनको कभी नहीं बोलना चाहिए। क्योंकि लोकव्यवहार शेष तीन प्रकारके वचनोंपर ही स्थित हैं । जो वचन गुरुजनोंको प्रसन्न करनेवाला हैं, वह मिथ्या होते हुए भी मिथ्या नहीं हैं। ।।३६७।। न स्वयं अपनी प्रशंसा करनी चाहिए और न दूसरोंकी निंदा करनी चाहिए। दूसरों में यदि गुण हैं तो उनका लोप नहीं करना चाहिए और अपनेमें यदि गुण नहीं है तो उनका वर्णन नहीं करना चाहिए कि मेरेमें ये गुण हैं || ३६८ || ऐसा करनेसे मनुष्य नीच गोत्रका बन्ध करता है, और उससे विपरीत करनेसे अर्थात् अपनी निन्दा और दूसरोंकी प्रशंसा करनेसे तथा दूसरोंमें गुण न होनेपर भी उनका वर्णन करनेसे और अपनेमें गुण होते हुए भी उनका कथन न करनेसे उच्चगोत्रका बन्ध करता है || ३६९ ॥ | जो दूसरोंका हित करता हैं वह अपना ही हित करता हैं फिर भी न जाने क्यों यह संसार दूसरोंका अहित करने में ही तत्पर रहता है ।। ३७०।। जैसे-जैसे यह चित्त दूसरोंके विषयमें अन्धकार फैलाता हैं वैसे-वैसे अपनी नाडियों में अन्धकारकी धाराको प्रवाहित करता हैं । अर्थात् दूसरोंका बुरा सोचनेसे अपना ही बुरा होता है || ३७१ || प्राणियों के चित्तरूपी वस्त्र यदि दोषरूपी जलमें डाले जाते हैं तो भारी हो जाते हैं और यदि गुणरूपी ग्रीष्म ऋतुमें फैलाये जाते है तो हल्के हो जाते है || ३७२ || सत्यवादीको सदा सच बोलने के कारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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