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________________ यशस्तिलकचम्पगत-उपासकाध्ययन रत्नरत्नाङ्गरत्नस्त्रीरत्नाम्बर विभूतयः । भवन्त्यचिन्तितास्तेषामस्तेयं येषु निर्मलम् ।। ३५६ परप्रमोषतोषेण तृष्णाकृष्णधियां नृणाम् । अत्रैव दोषसंभूतिः परत्रैव च दुर्गतिः ।। ३५७ श्रीभूति: स्तेयदोषेण पत्युः प्राप्य पराभवम् । रोहिदश्वप्रवेशेन दंशेर: सन्नधोगतः ।। ३५८ अत्यक्तिमन्यदोषोक्तिमसभ्योक्ति च वजयेत । भाषेत वचनं नित्यमभिजातं हितं मितम् ।। ३५९ तत्सत्यमपि नो वाच्यं यत्स्यात्परविपत्तये । जायन्ते येन वा स्वस्थ व्यापदश्चतुरास्पदाः ।। ३६० प्रियशील: प्रियाचार: प्रियकारी प्रियंवदः । स्यादानृशंसीनित्य नित्यं परहिते रतः ।। ३६१ केलिश्रुतसङ्ग्रेषु देवधर्मतप:सु च । अवर्णवादवाञ्जन्तुर्भवेद्दर्शनमोहवान् ।। ३६२ मोक्षमार्ग स्वयं जाननथिने यो न भाषते । महापन्हवमात्सर्यैः स स्यादावरणद्वयो।। ३६३ मन्त्रभेद: परीवादः पैशून्यं कूटलेखनम् । मुधासाक्षिपदोस्तिश्च सत्यस्य ते विघातकाः ।। ३६४ परस्त्रीराजविद्विष्टलोकविद्विष्टसंश्रयाम् । अनायक समारम्भा न कथां कथयेधः ।। ३६५ असत्यं सत्यगं किंचित्किचित्सत्यमसत्यगम् । सत्यसत्यं पुनः किचिदसत्यासत्यमेव च ।। ३६६ चोरीका उपाय बतलाना, चोरीका माल खरीदना, देशमें युद्ध छिड जानेपर पदार्थोका संग्रह कर रखना ये सब अचौर्याणवतके दोष हैं ।। ३५५।। जो निर्दोष अचौर्याणुब्रतको पालते हैं उनको रत्न, सोना, उत्तम स्त्री, उत्तम वस्त्र आदि विभूतियाँ स्वयं प्राप्त होती है, उसके लिए उन्हें चिन्ता नहीं करनी पडती । ३५६।। जो मनुष्य दूसरोंकी वस्तुओंको चुराकर प्रसन्न होते हैं, तृष्णासे कलुषित बुद्धिवाले उन मनुष्योंमें इसी जन्ममें अनेक बुराइयाँ पैदा हो जाती हैं और दूसरे जन्ममें भी उनकी दुर्गति होती है ।। ३५७।। 'चोरीके दोषके कारण श्रीभूति राजाके द्वारा तिरस्कृत हुआ। और आगमें जलकर मर गया। फिर सर्पयोनिमें जन्म लेकर नरकगामी हुआ ॥३५८।। (अब सत्य व्रतका वर्णन करते हैं-) किसी बातको बढाकर नहीं कहना चाहिए, न दूसरेके दोषोंकी ही कहना चाहिए और न असभ्य वचन ही बोलना चाहिए। किन्तु मदा हित-मितऔर सभ्य वचन ही बोलना चाहिए ॥३५९।। किन्तु ऐसा सत्य भी नहीं बोलना,चाहिए, जिससे दूसरोंपर विपत्ति आती हो या अपने ऊपर दुर्निवार संकट आता हो ॥३६०।। मनुष्यको सदा प्रिय स्वभाववाला, प्रिय आचरणवाला, प्रिय करनेवाला, प्रिय बोलनेवाला, सदा दयालु और सदा दूसरोंके हितमें तत्पर होना चाहिए ।।३६१।। जो जीव केवली, शास्त्र, संघ, देव, धर्म और तपमें मिथ्या दोष लगाता है, वह दर्शन मोहनीय कर्मका बन्ध करता हैं ।।३६२।। जो मोक्षके मार्गको जानता हुआ भी,जो उसे जानने को इच्छुक हैं उसे भी नहीं बतलाता, वह अपने ज्ञानका घमण्ड करनेसे, ज्ञानको छिपानेसे तथा उसके सिवाय दूसरा कोई न जानने पावे, इस ईर्ष्या भावसे ज्ञानावरण ओर दर्शनावरण कर्मका बन्ध करता हैं ॥३६३।। संकेत आदि से दूसरेके मनकी बातको जानकर उसे दूसरोंपर प्रकट कर देना, दूसरेकी बदनामी फैलाना, चुगली खाना, जो बात दूसरेने नहीं कही या नहीं की, दूसरोंका दबाव पडनेसे ऐसा उसने कहा या किया है इस प्रकारका झूठा लेख लिखना, और झूठी गवाही देना, ये सब काम सत्यवतके घातक हैं ॥३६४।। समझदार मनुष्यको परायी स्त्रियोंकी कथा, राजविरुद्ध कथा, लोकविरुद्ध कथा और कपोलकल्पित व्यर्थ कथा नहीं कहनी चाहिए ।३६५।। वचन चार प्रकारका होता हैं । कोई वचन सत्यग असत्य होता हैं, कोई वचन असत्यग-सत्य होता हैं। कोई वचन सत्यग-सत्य होता हैं और कोई वचन असत्यग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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