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________________ श्रावकाचार-संग्रह आप्रवृत्तनिवृत्ति में सर्वस्येति कृतक्रियः । संस्मृत्य गुरुनामानि कुर्यान्निद्रादिकं विधिम् ।। ३४४ वादायुविरामे स्यात्प्रत्याख्यानफलं महत् । भोगशून्यमतः कालं नावहेदव्रतं व्रती ।। ३४५ एका जीवदयैकत्र परत्र सकलाः क्रियाः । परं फलं तु पूर्वत्र कृषेश्चिन्तामणेरिव ।। ३४६ आयुष्मान्सु भागः श्रीमान्सुरूपः कीर्तिमान्नरः । अहिंसाव्रतमाहात्म्यादेकस्मादेव जायते ।। ३४७ पञ्चकृत्वः किलैकस्य मत्स्यस्याहिसनात्पुरा । अभूत्पञ्चाप्रदोऽतीत्य धनकीर्तिः पतिः श्रियः ॥ ३४८ अवत्तस्य परस्वस्य ग्रहण स्तेयमुच्यते । सर्वभोग्यात्तदन्यत्र भावात्तोयतृणादितः ॥ ३४९ ज्ञातीनामत्यये वित्तमदत्तमपि संगतम् । जीवतां तु निदेशेन व्रतक्षतिरतोऽन्यथा ।। ३५० संक्लेशाभिनिवेशेन प्रवृत्तिर्यत्र जायते । तत्सर्व यि विज्ञेयं स्तेयं स्वान्यजनाश्रय ॥। ३५१ रिक्थं तिधिनिधानोत्थं न राज्ञोऽन्यस्य युज्यते । यत्स्वस्यास्वामिकस्येह दायादो मेदिनीपतिः ।। ३५२ आत्माजितमपि द्रव्यं द्वापरान्यथा भवेत् । निजान्वयादतोऽन्यस्य व्रती स्वं परिवर्जयेत् ।। ३५३ मन्दिरे पदिरे नीरे कान्तारे धरणीधरे । तन्नान्यदीयमादेयं स्वापतेयं व्रताश्रयैः ।। ३५४ पौतवन्यूनताधिक्ये स्तेनकर्म ततो ग्रहः । विग्रहे संग्रहोऽर्थस्यास्तेयस्यैते निवर्तकाः ।। ३५५ १६४ दूर करो। फिर दान-पूजा आदि सब काम करो ||३४३ || रात्रिको जब सोओ तो सन्ध्याकालका कृतिकर्म करके यह प्रतिज्ञा करो कि जबतक मै गार्हस्थिक कार्यों में फिरसे न लगूं तब तक के लिए मेरे सबका त्याग है | और फिर पञ्च नमस्कार मंत्रका स्मरण करके निद्रा आदि लेवे ॥३४४॥ क्योंकि देववश यदि आयु समाप्त हो जाये तो त्यागसे बडा लाभ होता हैं । इसलिए व्रतीको चाहिए कि जिस कालमें वह भोग न करता हो उस कालको बिना व्रत के न जाने दे | अर्थात् उतने समयके लिए भोगका व्रत ले ले || ३४५ || अकेली जीवदया एक ओर है और बाकीकी सब क्रियाएँ दूसरी ओर हैं । अर्थात् अन्य सब क्रियाओंसे जीवदया श्रेष्ठ हैं। अन्य सब क्रियाओंका फल खेती की तरह हैं और जीवदयाका फल चिन्तामणि रत्नकी तरह हैं जो चाहो सो मिलता हैं । अकेले एक अहिंसा व्रत के प्रतापसे ही मनुष्य चिरजीवी, सौभाग्यशाली, ऐश्वर्यवान्, सुन्दर और यशस्वी होता हैं ।। ३४६-३४७ || पूर्व जन्ममें पाँच बार एक मछलीको न मारनेसे धनकीर्ति पाँच बार आपत्ति से बचकर लक्ष्मीका स्वामी बना ॥ ३४८ ॥ अचौर्याणुव्रत - पानी, घास आदि जो वस्तु सबके भोगने के लिए है उनके सिवाय शेष सब बिना दी हुई परवस्तुओंके ले लेना चोरी है ।। ३४९ ।। यदि कोई ऐसे कुटुम्बी मर जायें जिनका उत्तराधिकार हमें प्राप्त हैं तो उनका धन बिना दिये हुए भी लिया जा सकता हैं । किन्तु यदि वह जीवित हों तो उनकी आज्ञासे ही उनका धन लिया जा सकता है। उनकी जीवित अवस्थामें ही उनसे पूछे बिना उनका धन ले लेने से अचौर्याणुव्रतकी क्षति होती हैं ।। ३५० ।। अपना धन हो या दूसरोंका हो, जिसमें चोरीके भावसे प्रवृत्ति की जाती है तो वह सब चोरी ही समझना चाहिए ।।३५१॥ रिक्थ (जिसका स्वामी मर गया है, ऐसा धन ) निधि और निधानसे प्राप्त हुआ राजाका होता है किसी दूसरेका नहीं 1 क्योंकि जिस धनका कोई स्वामी नहीं है उसका स्वामी राजा होता है ।। ३५२ ।। अपने द्वारा उपार्जित द्रव्य में भी यदि संशय हो जाये कि यह मेरा हैं या दूसरेका, तो वह द्रव्य ग्रहण करनेके अयोग्य है अतः व्रती को अपने कुटुम्बके सिवाय दूसरों का धन नहीं लेना चाहिए ।। ३५३ ॥ किसी मकान में, मार्ग में, पानी में, जंगलमें या पहाड में रखा हुआ दूसरोंका धन अचौर्याणुव्रतीको नहीं लेना चाहिए || ३५४ || बाँट तराजूका कमती - बढती रखना, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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