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________________ यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन ग्रामस्वामिस्वकार्येषु यथालोकं प्रवर्तताम् । गणदोषविभागेऽत्र लोक एव यतो गुरुः ॥ ३३३ दर्पण वा प्रमादाढा द्वीन्द्रियादिविराधने । प्रायश्चित्तविधि कुर्याद्यथादोषं यथागमम् । ३३४ प्राय इत्युच्यते लोकस्तस्य चित्तं मनो भवेत् । एतच्छुद्धिकरं कर्म प्रायश्चित्तं प्रचक्षते ॥ ३३५ द्वादशाङ्गधरोऽप्येको न कृच्छं दातुमर्हति । तस्माद्वहुश्रुता: प्राज्ञाः प्रायश्चित्तप्रदाः स्मृताः ॥३३६ मनसा कर्मणा वाचा यदुष्कृतमुपाजितम् । मनसा कर्मणा वाचा तत् तथैव विहापयेत् ।। ३३७ आत्मदेशपरिस्पन्दो योगो योगविदा मतः । मनोवाक्कायतस्त्रेधा पुण्यपापास्रवाश्रयः ।। ३३८ हिंसनाब्रह्मचोर्यादि कार्य कर्माशुभं विदुः । असत्यासभ्यपारुष्यप्रायं वचनगोचरम् ।। ३३९ मदेायनादि स्यान्मनोव्यापारसंश्रयम् । एतद्विपर्ययाज्ज्ञेयं शुभमेतेषु तत्पुनः ॥ ३४० हिरण्यपशभमीनां कन्याशय्यान्नवाससाम् । दानबहविधैश्चान्यैर्न पापमपशाम्यति ।। ३४१ लधनौषधसाध्यानांव्याधीनांबाह्यकोविधिः ।यथाकिञ्चित्करो लोके तथा पापोऽपिमन्यताम्।।३४२ निहत्य निखिलं पापं मनोवाग्देहदण्डनैः । करोतु सकलं कर्म दानपूजादिकं ततः ॥ ३४३ हो ॥३३२॥ नागरिक कार्योमें, स्वामीके कार्योंमें और अपने कार्योमें लोकरीतिके अनुसार ही प्रवृत्ति करनी चाहिए. क्योंकि इन कार्योकी भलाई और बुराईमें लोक ही गुरु हैं । अर्थात् लौकिक कार्योको लोकरीतिके अनुसार ही करना चाहिए ।।३३३॥ - प्रायश्चित्तका विधान-मदसे अथवा प्रमादसे द्वीन्द्रिय आदि त्रस जीवोंका घात हो जाने पर दोषके अनुसार आगम में बतलायी गयी विधिपूर्वक प्रायश्चित करना चाहिए ।।३३४॥ प्रायः' शब्दका अर्थ (साधु) लोक हैं । उसके मनको चित्त कहते है । अतः साधु लोगोंके मनको शुद्ध करनेवाले कामको प्रायश्चित्त कहते है ।।३३।। द्वादशांगका पाठी होनेपर भी एक व्यक्ति प्रायश्चित्त देने का अधिकारी नहीं है । अतः जो बहुश्रुत अनेक विद्वान् होते हैं वे ही प्रायश्चित देते हैं ।।३३६।। मनके द्वारा, वचनके द्वारा अथवा कायके द्वारा जो पाप किया है उसे मनके द्वारा, वचन के द्वारा अथवा कायके द्वारा ही छुडवाना चाहिए ॥३३७।। योगके ज्ञाता पुरुष आत्माके प्रदेशोंके हलन-चलनको योग कहते है। वह योग मन, वचन और कायके भेदसे तीन प्रकारका होता हैं और उसीके निमित्तसे पुण्यकर्म और पापकर्मका आस्रव होता है ।।३३८॥ हिंसा करना; कुशील सेवन करना, चोरी करना आदि कायसम्बन्धी अशुभ कर्म जानना चाहिए। झूठ बोलना, असभ्य वचन बोलना और कठोर वचन बोलना आदि वचनसम्बन्धी अशुभ कर्म जानना चाहिए 1३३९।। घमण्ड करना,ईर्ष्या करना, दूसरोंकी निन्दा करना आदि मनोव्यापार सम्बन्धी अशुभ कर्म है । तथा इससे विपरीत करनेसे काय,वचन और मन सम्बन्धी शुभ कर्म जानना चाहिए। अयौत् हिंसा न करना,चोरी न करना, ब्रह्मचर्य पालन करना आदि कायिक शुभ कर्म हैं । सत्य और हित मित वचन बोलना आदि वचन सम्बन्धी शुभ कर्म है । अर्हन्त आदि की भक्ति करना, तपमें रुचि होना,ज्ञान और ज्ञानियोंकी विनय करना आदि मानसिक शुभ कर्म है ॥३४०।। सोना, पशु, जमीन, कन्या, शय्या, अन्न, वस्त्र तथा अन्य अनेक वस्तुओंके दान देनेसे पाप शान्त नहीं होता। ३४१॥ जो रोग उपवास करने और औषधीका सेवन करनेसे दूर होते है जैसे उनके लिए केवल बाह्य उपचार व्यर्थ होता हैं वैसे ही पापके विषयमें भी समझना चाहिए । अर्थात् मन वचन और कायको वशमें किये बिना केवल बाह्य वस्तुका त्याग कर देने मात्रसे पाप रूपी रोग शान्त नहीं होता ॥३४२॥ इसलिए पहले मन,वचन और कायको वशमें करके समस्त पापके कारणोंको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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