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________________ १६२ श्रावकाचार-संग्रह पुण्यं तेजोमयं प्राहुः प्राहु। पापं-तमोमयम् । तत्पापं सि कि तिष्ठेयादीधितिमालिनि ।। ३२४ सा क्रिया कापि नास्तीह यस्यां हिंसा न विद्यते । विशिष्येते परं भावावत्र मुख्यानुषङ्गिको ।। ३२५ अध्यन्नपि भवेत्पापी निघ्नन्नपि न पापभाक् । अभिध्यानविशेषेण यथा धीवरकर्षको ।। ३२६ कस्यचित्सन्निविष्टस्य दारान्मातरमन्तरा । वपुःस्पर्शाविशेषेऽपि शेमुषी तु विशिष्यते ॥ ३२७ तदुक्तम् “परिणाममेव कारणमाहुः खलु पुण्यपापयोः कुशलाः । . • तस्मात्पुण्योपचयः पापापचयश्च सुविधेयः" ।। ३२८ वपुषो वचसो वापि शुभाशुभसमाश्रया । क्रिया चित्तादचिन्त्येयं तदत्र प्रयतो भवेत् ॥ ३२९ क्रियान्यत्र क्रमेण स्यात्किय स्वेव च वस्तुषु । जगत्त्रयादपि स्फारा चित्तें तु क्षणतः क्रिया ॥३३० तथा च लोकोक्ति:"एकस्मिन्मनसः कोणे पुंसामुत्साहशालिनाम् । अनायासेन समान्ति भुवनानि चतुर्दश" ।। ३३१ भूपयःपवनाग्नीनां तृणादीनां च हिंसनम् । यावत्प्रयोजनं स्वस्य तावत्पुर्यादजन्तु यत् ।। ३३२ उसके हाथमें हैं और मोक्ष भी दूर नहीं हैं ॥३२३।। पुण्यको प्रकाशमय कहते है और पापको अन्धकारमय कहते हैं । दयारूपी सूर्यके होते हुए क्या पुरुषमें पाप ठहर सकता हैं? ॥३२४॥ ऐसी कोई क्रिया नहीं है जिसमें हिंसा नहीं होती। किन्तु हिंसा और अहिंसाके लिए गौण और मुख्य भावोंकी विशेषता हैं ।।३२५।। संकल्पमें भेद होनेसे धीवर नहीं मारते हुए भी पापी है और किसान मारते हुए भी पापी नहीं है । ३२६।। एक आदमी पत्नीके समीप बैठा हैं और एक आदमी माताके समीप बैठा है। दोनों ही नारीके अंगका स्पर्श करते हैं किन्तु दोनोंकी भावनाओंमें बडा अन्तर हैं ॥३२७।। कहा भी है- 'कुशल मनुष्य परिणामोंको ही पुण्य और पापका कारण बतलाते हैं। अतः पुण्यका संचय करना चाहिए और पापकी हानि करनी चाहिए' ॥३२८॥ मनके निमित्तसे ही शरीर और वचनकी क्रिया भी शुभ और अशुभ होती हैं । मनकी शक्ति अचिन्त्य हैं। इसलिए मनको ही शुद्ध करने का प्रयत्न करो॥३२ ॥ शरीर और वचनकी क्रिया तो क्रमसे होती है और कुछ ही वस्तुओंको अपना विषय बनाती है। किन्तु मनमें तो तीनों लोकोंसे भी बडी क्रिया क्षण-भरमें हो जाती है । अर्थात् मन एक क्षणमें तीनों लोकोंके बारे में सोच सकता है ॥३३०।। इसी विषयमें एक कहावत भी है-'उत्साही मनुष्योंके मनके एक कोने में बिना किसी प्रयासके चौदह भुवन समा जाते हैं ।।३३१।। भावार्थ-पहले बतला आये है कि जो काम अच्छे भावोंसे किया जाता हैं उसे अच्छा कहते हैं और जो काम बुरे भावोंसे किया जाता हैं उसे बरा कहते हैं। अतः वचनकी और कायकी क्रिया तभी अच्छी कही जायेगी जब उसके कर्ताके भाव अच्छे हों। अच्छे इरादेसे बच्चोंको पीटना भी अच्छा है और बुरे इरादेसे उन्हें मिठाई खिलाना भी अच्छा नहीं हैं । अतः मनकी खराबी वचनकी और कायकी क्रिया खराब कही जाती है और मनकी अच्छाई से अच्छी कही जाती हैं । इसलिए मनकी शक्तिको अचिन्त्य बतलाया हैं। मन एक ही क्षणमें दुनिया-भर की बातें सोच जाता है किन्तु जो कुछ वह सोच जाता हैं उसे एक क्षणमें न कहा जा सकता हैं और न किया जा सकता है । अतः मनका सुधार करना चाहिए। पृथ्वी, जल, हवा, आग और तृण आदिकी हिंसा उतनी ही करनी चाहिए जितनेसे अपना प्रयोजन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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